(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।
हिन्दी व्याख्याः- इस सूर: में इसलाम के एक मूल मंत्र को स्थापित किया गया है। समाज के वंचित तथा उसके द्वारा परित्यक्त मानवजाति के प्रति संवेदना जागृत की गई है। विशेषकर अनाथों तथा बेघर आश्रितों के प्रति दर्शाई जाने वाली संवेदनहीनता को कटघरे में खड़ा किया गया है। इसके मूल कारण पर प्रकाश डाला गया है। ऐसा तभी संभव है जब व्यक्ति के अन्दर मरने के बाद दोबारा जी उठने (पुनर्जीवन) एवं अपने कृत्यों की जवाबदेही के प्रति उदासीनता तथा विश्वास की शून्यता हो।
वास्तव में इस्लाम तथा अन्य आसमानी धर्मों (ईसाई एवं यहूदी धर्म) में यह धारणा है कि यह संसार नाश्वान है तथा मरणोपरांत ईश्वर की अदालत में अगले पिछले सभी मनुष्य पुनर्जन्म को प्राप्त होंगे। लेशमात्र भी सद्कर्म करने वाले को उसका पुरस्कार अवश्य मिलेगा तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म कुकृत्य को यथानुरूप दंडित भी निश्चित रूप से किया जाएगा। अब जिस के सदाचार एवं आचरण का पलड़ा भारी होगा, वह अनन्त काल के लिए जन्नत (स्वर्ग) में प्रवेश करेगा। तदनुसार, जिस के पापों का घड़ा भरा हुआ होगा वह जहन्नम (नरक) का भागीदार बनेगा।
इस विश्वास को आत्मसात न करने के कारण मनुष्य इस संसार में कुकर्मों को आचरण में सम्मिलित करता है। इस सूर: में उसकी एक बानगी प्रस्तुत की गई है। ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत न होने के विश्वास के कारण व्यक्ति अमानवीय व्यवहार करने लगता है। अनाथ जो सहानुभूति का अधिक अधिकारी है, उसे धक्के दे कर अधिकारों से वंचित करता है, जो अत्यंत घृणित कार्य है। उसी प्रकार ऐसे दीन दुखियारे जिनके पास कमाई का संतोषजनक साधन नहीं है, उनके हिस्से का खाना उन्हें न देना भी मानवता का दु:खद पहलू है।
यहां उन धार्मिक ढोंगियों को भी वैसा ही कठोर बताया गया है जो धर्म का मर्म समझने में चूक गए हैं और बाह्य आडम्बर का प्रर्दशन करते हुए पूजा अर्चना तो करते हैं पर परोपकार के संदर्भ में शांत रहते हैं। अविश्वास एवं पाखंड दोनों को मानवता का शत्रु मानते हुए यह सूर: दोनों बुरी आदतों को छोड़ने की शिक्षा देती है।
रिज़वान अलीग, email – [email protected]