कुरआन की बातें (भाग 6)

कुरआन की बातें

(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।

हिन्दी व्याख्याः- यह सूर: काफ़िरून है। इस में स्पष्ट रूप से यह बता दिया गया है कि इस्लाम और कुफ्र (ग़ैर इस्लाम) दो अलग-अलग मार्ग हैं। दोनों एक-दूसरे के साथ तो रह सकते हैं पर आपस में घुल मिल नहीं सकते। एक को स्वीकार करना दूसरे को नकारने का पर्याय है।

वास्तव में इस्लाम धर्म एक ईश्वर, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अंतिम संदेश्टा होने तथा मरणोपरांत सभी कर्म के अनिवार्य रूप से पुरस्कृत अथवा दंडित होने के विश्वास पर आधारित है। इसकी मान्यता है कि इन मौलिक सिद्धांतों में कोई समझौता नहीं किया जा सकता। तभी एक न्यायप्रिय समाज अस्तित्व में आ सकता है।

जिस समय मुहम्मद साहब अपने सार्वभौमिक संदेश का प्रचार-प्रसार कर रहे थे, तो अनेक अवसरों पर मक्का वासी समझौते की बात करने आते। वे कहते कि हमारे पूर्वजों की आस्था पर प्रहार ना करें, कभी हमारे देवी देवताओं के भी जयकारे लगा दिया करें या एक वर्ष आप हमारे मतानुसार पूजा अर्चना करें तो अगले वर्ष हम आपके कथानुसार आचरण करेंगे।

वे यह भी शर्ते रखते थे कि यदि आप को धन-दौलत चाहिए तो हम अपार धन से आप को संतुष्ट कर देंगे। आप चाहें तो सर्वाधिक सुंदर कन्या से आप का विवाह करा दें। आप कहें तो अपना राजा स्वीकार कर लें। बस इन देवी-देवताओं को बुरा-भला ना कहें। अतः अल्लाह ने यह सूर: अवतरित करके सत्य-असत्य के कभी न मिल सकने वाले स्वभाव के बारे में दो टूक उत्तर दे दिया तथा अपने संदेश्टा एवं रहती दुनिया तक उनके अनुयायियों को यह मंत्र दे दिया कि सत्य एवं असत्य की मिलावट कभी नहीं हो सकती।

कुफ्र से तात्पर्य है इंकार। काफ़िर उसे कहते हैं जो एकेश्वरवाद, ईश्वर के सच्चे संदेश्टा तथा मृत्युपरांत जीवन (जो इस्लाम धर्म के मूल सिद्धांत हैं) में आस्था न रखता हो। यह कोई गाली नहीं है जो सभी अथवा किसी गैर मुस्लिम को दी जाती है, वरन् मात्र एक विशेषण है जो तब तक ही किसी पर लागू होता है जब तक वह विशेष अवगुण उसके अंदर विद्यमान हो। यदि कोई उपरोक्त आस्था के अनुसार कार्य करने लगे, तो उसे काफ़िर नहीं कहेंगे। जिस प्रकार एक मदिरापान करने वाले को शराबी कहते हैं, किन्तु यदि उसने अपनी इस बुरी प्रवृत्ति का परित्याग कर दिया तो फिर उसे शराबी नहीं कहेंगे।

यह सूर: स्पष्ट रूप से यह बताने के लिए लायी गई है कि वास्तव में इस्लाम के अतिरिक्त सभी मतावलंबियों का इस्लाम से मूलतः मतभेद है।

ईश्वर एक है, तथा वह किसी भी प्रकार से न तो किसी का बाप है न बेटा। उसके स्वयं के न पत्नी है न बेटा न बेटी। उसके बराबर भी कोई नहीं है। वह किसी का मोहताज (आश्रित) नहीं है। वह सदा से है एवं सदैव रहेगा। वह न उत्पन्न (पैदा) हुआ, न कभी मृत्यु को प्राप्त होगा।

उस ने मानव कल्याण एवं मार्ग दर्शन के लिए अपने संदेश्टाओं की एक श्रृंखला अवतरित की। एक लाख चौबीस हजार दूतों में हज़रत आदम अलैहिस्सलाम सर्वप्रथम मानव एवं ईशदूत थे तथा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अंतिम ईशदूत थे। आप के उपरांत कोई ईशदूत न आया है और न आने वाला है।

इसी प्रकार मृत्युपरांत भी एक जीवन है जो अनंत है। कुकर्मी तथा पापी के लिए अनंतकाल के लिए नर्क की अग्नि है तथा नाना प्रकार का तिरस्कार एवं यातनाएं हैं, जबकि पुण्य अर्जित करने वाले के लिए अनंतकाल का भोग-विलास एवं पुरस्कार है।

इस्लामी मान्यतानुसार यही वह विश्वास है जो मनुष्य को सद्कर्म के लिए प्रेरित कर सकता है। इस में मानव रीति रिवाजों की मिलावट संभव नहीं है। यदि निष्काम भाव से इस को व्यवहार में लाया जाएगा, तभी समुचित एवं अपेक्षित परिणाम की आशा की जा सकती है वरना नहीं।

इसी संदर्भ में यह सूर: “तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म और मेरे लिए मेरा धर्म” प्रस्तावित करती है।

पर वैचारिक मतभेद से इतर यह व्यवहार में कट्टरता के विरुद्ध है तथा सभी मानवजाति के संग परस्पर मेलजोल की पक्षधर है। इसी कारण मुस्लिम (यदि वास्तव में वे अपने धर्म के प्रति निष्ठावान हैं) सदैव मतैक्य एवं उदारता के मार्ग पर चलते रहे हैं, शांति समझौते करते हैं तथा न्याय करते समय निष्पक्ष निर्णय देते हैं। सैद्धांतिक भिन्नता अपनी जगह पर मानवता एवं न्याय के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता।

रिज़वान अलीग, email – [email protected]

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