नौजवान सईद बिन आमिर जुमही उन हज़ारों इंसानों में से एक था जो क़ुरैश के सरदारों की दावत पर मक्का से बाहर तनईम के मक़ाम पर सहाबी ए रसूल हज़रत ख़ूबैब बिन अदी (रज़ि) के क़त्ल का तमाशा देखने के लिए इकट्ठा हुए थे, जिनको काफिरों ने धोके से गिरफ्तार किया था।
वो अपनी भरपूर जवानी के बल पर मजमे को ढकेलता और उसमे से अपने लिए रास्ता बनाता हुआ अबू सुफयान बिन हर्ब और सफवान बिन उमैया जैसे क़ुरैश के सरदारों के बगल में जा खड़ा हुआ, जो उस मजमे (भीड़) में नुमायां मक़ाम (ऊंची जगह) पर खड़े थे। इस तरह उसे इस बात का मौका मिला कि वह क़ुरैश के क़ैदी को देख सके, जो वहां ज़ंजीरों में जकड़ कर लाया गया था, जिसको क़ुरैश की औरतें, बच्चे और जवान ढकेलते हुए मौत के मैदान की तरफ़ ला रहे थे, ताकि उसे क़त्ल करके मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इंतेक़ाम ले सकें और जंग ए बद्र में मारे जाने वाले अपने अज़ीज़ों का बदला चुका सकें।
जब यह ज़बरदस्त भीड़ अपने क़ैदी को लिए हुए उस जगह पर पहुंच गई, जो उसके क़त्ल के लिए बनाई गई थी, तो नौजवान सईद बिन आमिर एक जगह रुक कर भीड़ के दरमियान (बीच) से हज़रत ख़ुबैब (रज़ि) को देखने लगा, उसने देखा कि ख़ुबैब (रज़ि) को फांसी के फंदे की तरफ ले जाया जा रहा है। उसने औरतों और बच्चों की चीख-पुकार और शोरगुल के दरमियान से उभरती हुई ख़ुबैब (रज़ि) की बावक़ार और पुरसुकून आवाज़ सुनी, जो उसके कानों से टकराई थी।
“अगर तुम लोग चाहो तो क़त्ल से पहले मुझे दो रकात नमाज़ पढ़ने का मौक़ा दे दो।”
फिर सईद ने देखा कि ख़ुबैब बिन अदी (रज़ि) ने क़िबला की तरफ़ रुख़ कर के दो रकाते पढ़ीं। आह! कैसी हसीन और कितनी मुकम्मल थीं वह दो रकातें। फिर उसने देखा कि ख़ुबैब (रज़ि) ने क़ुरैश के लीडरों को मुख़ातब करते हुए कहा:
“अल्लाह की क़सम अगर मुझे यह अंदेशा ना होता कि तुम मेरे बारे में इस बदगुमानी में मुब्तिला हो जाओगे कि मैं मौत से डर कर नमाज़ को लंबी कर रहा हूं तो मैं और लंबी और इत्मीनान के साथ नमाज़ पढ़ता।”
फिर सईद ने अपनी क़ौम के लोगों को देखा कि वह ज़िंदा ही ख़ुबैब (रज़ि) के जिस्म के हिस्सों को एक के बाद एक काट रहे और साथ ही साथ यह भी कहते जाते हैं: “क्या तुम यह बात पसंद करोगे कि इस वक़्त मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुम्हारी जगह यहां होते और तुम इस तकलीफ़ से नजात पा जाते?”
तो ख़ुबैब (रज़ि) ने जवाब दिया (और उस वक़्त उनके जिस्म से बेतहाशा खून बह रहा था) “अल्लाह की क़सम मुझे तो इतना भी गवारा नहीं है कि मैं अमन व इत्मीनान के साथ अपने घर वालों में रहूं और उनके पांव के तलवे में एक कांटा भी चुभ जाए।”
और यह सुनते ही लोगों ने अपने हाथों को फिज़ा में बलंद करते हुए चींख़ना शुरू कर दिया:
“मार डालो इसे, ख़त्म कर दो इसे।”
फिर सईद बिन आमिर की आंखों ने यह मंज़र भी देखा की ख़ुबैब (रज़ि) ने फांसी के फंदे ही से अपनी नज़रें आसमान की तरफ़ उठाते हुए कहा:
“ख़ुदाया! इन्हें एक-एक करके गिन ले। इन्हें मुंतशिर (फैलाना) कर के हलाक कर। और इनमें से किसी को ना छोड़।
फिर उन्होंने आखि़री सांस ली और पाक रूह अपने रब के हुज़ूर पहुंच गई। उस वक़्त उनके जिस्म पर तलवारों और नेज़ों के अनगिनत ज़ख़्म थे।
इसके बाद क़ुरैश मक्का लौट आए और बड़े-बड़े वाक़िआत व हादसात की भीड़ में ख़ुबैब (रज़ि) और उनके क़त्ल का वाक़िआ उनके ज़हनों से ओझल हो गया। लेकिन नौजवान सईद बिन आमिर जुमही ख़ुबैब (रज़ि) की इस मज़लूमियत और उनके दर्दनाक क़त्ल के इस मंज़र को अपने ज़हन से एक लम्हे के लिए मिटा ना सका, वह सोता तो ख़्वाब में उनको देखता और बेदारी के आलम में अपने ख़्यालात में उनको मौजूद पाता। यह मंज़र हर वक़्त उसकी निगाहों के सामने रहता कि ख़ुबैब (रज़ि) फांसी के फंदे के सामने बड़े सुकून के साथ खड़े दो रकातें अदा कर रहे हैं और उसके कानों से हर वक़्त उनकी वह दर्द भरी आवाज़ टकराती रहती। जब वह क़ुरैश के लिए बद्दुआ कर रहे थे और उसको हर वक़्त इस बात का डर लगा रहता कि कहीं आसमान से कोई बिजली या कोई चट्टान गिर कर उसे हलाक ना कर दे।
फिर ख़ुबैब (रज़ि) ने सईद को वह बातें बता दीं जो पहले से उसके इल्म में ना थीं। ख़ुबैब (रज़ि) ने उसे बताया कि हक़ीक़ी ज़िंदगी यही है कि आदमी हमेशा सच्चे अक़ीदे के साथ चिमटा रहे और जि़ंदगी की आख़री सांस तक ख़ुदा की राह में जद्दोजहद करता रहे। ख़ुबैब (रज़ि) ने सईद को यह भी बता दिया कि मज़बूत ईमान कैसे-कैसे हैरतअंगेज़ कारनामे अंजाम देता है और उससे कितनी हैरान करने वाली चीज़ें ज़ाहिर होती हैं। ख़ुबैब (रज़ि) ने सईद को एक और बड़ी अहम हक़ीक़त से आगाह किया कि वह शख़्स जिसके साथी उससे इस तरह टूटकर मोहब्बत करते हैं, वाक़ई सच्चा रसूल और नबी है और उसे आसमानी मदद हासिल है।
और उस वक़्त अल्लाह तआला ने सईद बिन आमिर के सीने को इस्लाम के लिए खोल दिया। वह क़ुरैश की एक मजलिस में पहुंचा और वहां खड़े होकर उसने क़ुरैश और उनके काले करतूतों से अपनी बेतअल्लुक़ी व नफ़रत और उनके झूठे माबूदों (ख़ुदा) से अपनी बेज़ारी और बराअत और अपने इस्लाम में दाख़िल होने का खुल्लम खुल्ला ऐलान कर दिया।
इसके बाद हज़रत सईद बिन आमिर (रज़ि) हिजरत करके मदीना चले गए और मुस्तक़िल तौर पर उन्होंने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सोहबत एख़तियार कर ली और गज़वा (जंग) ए ख़ैबर और उसके बाद के तमाम गज़वात (जंगों) में आपके साथ रहे और जब नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने रब के पास चले गए तो हज़रत सईद बिन आमिर (रज़ि) आपके दोनों खलीफ़ा हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि) और हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि) के हाथों में नंगी तलवार बन गए और उन्होंने अपनी तमाम जिस्मानी और नफ़सानी ख़्वाहिशात को खुदा ए ताला की मर्ज़ीयात के ताबे करके अपनी ज़िंदगी को उस सच्चे मोमिन की ज़िंदगी का नादिर और बेमिसाल नमूना बनाकर पेश किया जिसने दुनियवी ऐश व इश्रत के बदले आख़िरत की हमेशा रहने वाली कामयाबी का सौदा कर लिया हो।
रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के यह दोनों जानशीन उनकी नसीहतों को बहुत गौर से सुनते और उनकी बातों पर पूरा पूरा ध्यान देते थे। एक बार वह हज़रत उमर फ़ारूक़ (रज़ि) की ख़िलाफत के दौर के शुरुआती दिनों में उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुए और नसीहत करते हुए उनसे कहा:
“उमर! मैं आपको नसीहत करता हूं कि रिआया (जनता) के बारे में हमेशा ख़ुदा तआला से डरते रहिए और ख़ुदा के मामले में लोगों का ख़ौफ़ ना कीजिए और आपकी बात व अमल में फ़र्क़ ना पाया जाए, बेहतरीन बात वही है जिसकी तस्दीक़ अमल से होती हो।”
उन्होंने बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए फरमाया:
“उमर! दूर व नजदीक के उन तमाम मुसलमानों पर हमेशा तवज्जो दीजिए जिनकी ज़िम्मेदारी अल्लाह तआला ने आप पर डाली है, और उनके लिए वही बातें पसंद कीजिए जो आप ख़ुद अपने और अपने घर वालों के लिए पसंद करते हैं, और हक़ के रास्ते में बड़े से बड़े ख़तरे की भी परवाह ना कीजिए और अल्लाह के बारे में किसी मलामत करने वाले की मलामत को ख़ातिर (ध्यान) में ना लाइए।”
“सईद! यह सब किसके बस की बात है?” हज़रत उमर (रज़ि) ने उनकी यह बातें सुनकर कहा।
यह आप जैसे शख़्स के बस की बात है जिसको अल्लाह तआला ने उम्मत ए मोहम्मद का जि़म्मेदार बनाया है, जिसके और ख़ुदा के दरमियान कोई दूसरा हाएल नहीं है।” हज़रत सईद (रज़ि) ने कहा।
इस गुफ़्तगू (बात) के बाद ख़लीफ़ा ने हज़रत सईद बिन आमिर (रज़ि) से हुकूमत की ज़िम्मेदारियों की अदायगी के सिलसिले में मदद की ख़्वाहिश ज़ाहिर की और फरमाया:
“सईद! मैं तुमको हिम्स का गवर्नर बना रहा हूं।”
“मैं आपको ख़ुदा का वास्ता देता हूं, मुझे आज़माइश में ना डालिए।” हज़रत सईद (रज़ि) ने जवाब में कहा।
उनका यह जवाब सुनकर हज़रत उमर (रज़ि) ने थोड़ी नाराज़गी का इज़हार करते हुए फ़रमाया:
“ख़ुदा तुम्हारा भला करे, तुम लोग हुकूमत की भारी ज़िम्मेदारियां मेरे सर डालकर उस से किनारे हो जाना चाहते हो, खु़दा की क़सम मैं तुमको हरगिज़ नहीं छोड़ सकता।”
फिर हज़रत उमर (रज़ि) ने हिम्स की गवर्नरी उनके हवाले करते हुए फरमाया:
“मैं तुम्हारे लिए तनख़्वाह ना मुक़र्रर कर दूं?”
मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है। बैतुलमाल से जो वज़ीफा मुझे मिलता है वह मेरी जरूर जरूरतों से ज़्यादा है।” हज़रत सईद (रज़ि) ने कहा और वह हिम्स के लिए रवाना हो गए।
इसके कुछ ही दिनों के बाद हिम्स के कुछ क़ाबिल ए एतेमाद लोगों का एक वफ़्द हज़रत उमर (रज़ि) की ख़िदमत में हाजि़र हुआ। हज़रत उमर (रज़ि) ने उनसे फ़रमाया कि मुझे अपने यहां के फ़क़ीरों और ज़रूरतमंदों के नाम लिख कर दे दो ताकि मैं उनकी ज़रूरतों को पूरा करने का कोई बंदोबस्त कर दूं। हुक्म को मानते हुए उन्होंने ख़लीफ़ा के सामने जो फ़ेहरिस्त पेश की उसमें था: फलां इब्न फलां और फलां इब्न फलां और सईद बिन आमिर (रज़ि) ।
“सईद बिन आमिर? कौन सईद बिन आमिर?” हज़रत उमर (रज़ि) ने हैरत से पूछा।
“हमारे गवर्नर” वफ़्द के लोगों ने जवाब दिया।
“तुम्हारा गवर्नर? क्या तुम्हारा गवर्नर फ़क़ीर है?” हज़रत उमर (रज़ि) ने मज़ीद हैरत से पूछा।
“जी हां अमीरुल मोमिनीन! ख़ुदा की क़सम कितने ही दिन ऐसे गुज़र जाते हैं कि उनके घर में आग नहीं जलती। “वफ़्द ने मज़ीद वज़ाहत की।
यह सुनकर हज़रत उमर (रज़ि) रो पड़े। वह देर तक रोते रहे यहां तक कि उनकी दाढ़ी आंसुओं से तर हो गई, फिर वह उठे और एक हज़ार दीनार एक थैली में रख कर उसे वफ़्द के लोगों के हवाले करते हुए फ़रमाया:
“सईद से मेरा सलाम कहना और कहना कि अमीरुल मोमिनीन ने यह माल आपके लिए भेजा है ताकि आप इससे अपनी ज़रूरतें पूरी करें।”
वफ़्द के लोग दीनारों की वह थैली लेकर हज़रत सईद (रज़ि) की ख़िदमत में पहुंचे और उसे उनके सामने पेश कर दिया। उन्होंने उस थैली और उसमें रखे हुए दीनारों को अपने से दूर हटाते हुए कहा: “इन्ना लिल्लाहि वइन्ना इलैहि राजीऊन।” जैसे उनके ऊपर कोई बड़ी मुसीबत नाज़िल हो गई हो। आवाज़ सुनकर उनकी बीवी घबराई हुई उनके पास आईं और बोलीं:
“सईद! क्या बात है? क्या अमीरुल मोमिनीन का इंतिक़ाल हो गया?”
“नहीं। इससे भी बड़ा हादसा पेश आया है। हज़रत सईद (रज़ि) ने कहा।
“क्या किसी जंग में मुसलमानों को शिकस्त हो गई है?” बीवी ने सवाल किया।
“नहीं। इससे भी बड़ी मुसीबत आ पड़ी है।” हज़रत सईद (रज़ि) ने जवाब दिया।
“इससे बड़ी मुसीबत क्या हो सकती है?” बीवी ने फिर पूछा।
“दुनिया मेरे घर में दाख़िल हो गई है ताकि मेरी आख़िरत को तबाह कर दे।” हज़रत सईद (रज़ि) ने घबराहट भरे लहजे में जवाब दिया।
“उससे छुटकारा हासिल कर लो।” बीवी ने हमदर्दाना मशवरा दिया (अभी तक वह दीनारों के बारे में कुछ नहीं जानती थीं)।
“क्या तुम इस मामले में मेरी मदद कर सकती हो?” हज़रत सईद (रज़ि) ने पूछा।
“हां, क्यों नहीं।” बीवी ने जवाब दिया।
फिर हज़रत सईद (रज़ि) ने तमाम दीनारों को बहुत सी छोटी-छोटी थैलियों में रखकर उन्हें ग़रीब और हाजतमंद (ज़रूरतमंद) मुसलमानों में तक़्सीम करवा दिया।
इस बात को अभी कुछ ज़्यादा दिन नहीं हुए थे कि हज़रत उमर बिन खत्ताब (रज़ि) शाम के दौरे पर वहां के हालात मालूम करने के लिए तशरीफ लाए। दौरे में जब आप हिम्स पहुंचे, (उस ज़माने में हिम्स को कुवैफ़ा भी कहा जाता था, इसलिए कि वहां के बाशिंदे भी कूफ़ा के वालों की तरह अपने उम्माल और हुक्काम की कसरत से शिकायतें करने में मशहूर थे) तो जब हिम्स वाले ख़लीफ़ा से सलाम व मुलाक़ात के लिए उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुए तो ख़लीफ़ा ने उनसे सवाल किया कि तुमने अपने इस नए अमीर को कैसा पाया? जवाब में उन्होंने अमीरुल मोमिनीन के सामने हज़रत सईद बिन आमिर (रज़ि) की चार शिकायतें पेश कीं जिनमें से हर एक शिकायत दूसरी से बड़ी थी, हज़रत उमर (रज़ि) फ़रमाते हैं कि:
“मैंने उनको और सईद को एक जगह इकट्ठा किया और अल्लाह तआला से दुआ की कि वह सईद के बारे में मेरे अच्छे गुमान को सदमा ना पहुंचाए, क्योंकि मैं उनके बारे में बहुत अच्छा गुमान रखता था, जब शिकायत करने वाले और उनके अमीर सईद बिन आमिर मेरे पास जमा हो गए तो मैंने पूछा कि तुम को अपने अमीर से क्या शिकायत है?
“जब तक ख़ूब दिन नहीं चढ़ आता यह अपने घर से बाहर नहीं निकलते।” शिकायत करने वालों ने कहा। मैंने सईद से पूछा कि सईद! तुम इस शिकायत के बारे में क्या कहते हो? सईद (रज़ि) थोड़ी देर ख़ामोश रहे फिर बोले :खुदा की क़सम मैं इस बात को ज़ाहिर नहीं करना चाहता था मगर इसको ज़ाहिर किए बग़ैर चारा नहीं है, बात यह है कि मेरे घर में कोई नौकरानी नहीं है इसलिए ज़रा सवेरे उठता हूं तो पहले आटा गूंधता हूं फिर थोड़ी देर इंतिज़ार करता हूं ताकि उसका खमीर उठ जाए, फिर रोटियां पकाता हूं, उसके बाद वुज़ु करके लोगों की ज़रूरत के लिए बाहर निकलता हूं। मैंने हिम्स के लोगों से पूछा कि तुम्हारी दूसरी शिकायत क्या है? उन्होंने कहा कि: “यह रात के वक़्त किसी का जवाब नहीं देते।”
मैंने पूछा कि सईद इस शिकायत के बारे में तुम क्या कहना चाहते हो?” तो उन्होंने जवाब दिया कि: “ख़ुदा की क़सम मैं इस बात को भी ज़ाहिर करना पसंद नहीं करता था, मैंने दिन के औक़ात इन लोगों के लिए और रात के औक़ात अपने रब के लिए मख़सूस कर रखे हैं।”
मैंने शिकायत करने वालों से कहा: “अब तुम अपनी तीसरी शिकायत बयान करो।” उन्होंने कहा कि यह महीने में एक बार दिन भर घर से बाहर नहीं निकलते।”
मैंने पूछा कि “सईद! तुम इस शिकायत का क्या जवाब देते हो?” सईद (रज़ि) ने कहा कि “अमीरुल मोमिनीन मेरे पास कोई नौकर नहीं है, और जिस्म के इन कपड़ों के सिवा मेरे पास और कोई कपड़ा नहीं है, मैं इनको महीने में सिर्फ़ एक बार धोता हूं और इनके सूखने का इंतिज़ार करता हूं, और सूखने के बाद दिन के आख़िरी हिस्से में इन्हें पहनकर बाहर आता हूं।”
मैंने शिकायत करने वालों से कहा कि “अब तुम अपनी आख़िरी शिकायत बयान करो।” उन्होंने कहा कि “इनको रह-रहकर गशी के सख़्त दौरे पड़ते हैं और यह अपने इर्द-गिर्द से बेख़बर हो जाते हैं।”
मैंने कहा: “सईद! तुम्हारे पास इस शिकायत का क्या जवाब है?” उन्होंने जवाब दिया कि मैं ख़ुबैब बिन अदी (रज़ि) के क़त्ल के वक़्त मौक़े पर मौजूद था और उस वक़्त मैं मुशरिक था। मैंने क़ुरैश को देखा कि वह उनके जिस्म का एक एक हिस्सा काटते जाते और साथ ही यह कहते जाते कि “क्या तुम यह पसंद करते हो कि आज तुम्हारी जगह पर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) होते और तुम इस तकलीफ़ से नजात पा जाते?” तो वह जवाब देते कि “ख़ुदा की क़सम मुझे तो यह भी पसंद नहीं कि मैं इत्मीनान व सुकून के साथ अपने घर वालों में रहूं और मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के तलवों में एक फांस भी लग जाए।” “ख़ुदा की क़सम जब मुझको वह मंज़र याद आता है और साथ ही यह भी याद आता है कि मैंने उस वक़्त उनकी मदद क्यों ना की तो मुझे इस बात का सख़्त ख़तरा लाहिक़ हो जाता है कि अल्लाह तआला मेरी इस कोताही को हरगिज़ माफ़ नहीं करेगा और उसी वक़्त मेरे ऊपर गशी तारी हो जाती है।” यह सुनकर मैंने कहा कि “ख़ुदा का शुक्र है कि उसने सईद के बारे में मेरे अच्छे गुमान को सदमा नहीं पहुंचने दिया।”
इसके बाद हज़रत उमर (रज़ि) ने उनके लिए एक हज़ार दीनार भेजे ताकि उनसे वह अपनी जरूरतें पूरी करें। जब उनकी बीवी ने इन दीनारों को देखा तो बोलीं कि ख़ुदा का शुक्र है कि उसने हमको आप की ख़िदमात से बेनेयाज़ कर दिया। अब आप इस रक़म से हमारे लिए एक ग़ुलाम और एक ख़ादिमा ख़रीद दीजिए। यह सुनकर हज़रत सईद (रज़ि) ने कहा:
“क्या तुम को इससे बेहतर चीज़ की ख़्वाहिश नहीं है?”
“इससे बेहतर? इससे बेहतर क्या चीज़ है?” बीवी ने पूछा।
“यह रक़म हम उसके पास जमा कर दें जो इसे हम को उस वक़्त वापस कर दे जब हम इसके ज़्यादा ज़रूरतमंद हों।” हज़रत सईद (रज़ि) ने बात सुझाई।
“इसकी क्या सूरत होगी?” बीवी ने वज़ाहत चाही।
हज़रत सईद (रज़ि) ने कहा कि “हम यह रक़म अल्लाह तआला को करज़े हसन दे दें।”
बीवी ने कहा: “हां यह बेहतर है, अल्लाह आपको बेहतर बदला दे।
फिर हज़रत सईद (रज़ि) ने उस मजलिस से उठने से पहले उन तमाम दीनारों को बहुत सी थैलियों में रखकर अपने घर के एक आदमी से कहा कि “इन्हें फ़लां क़बीले की बेवाओं, फ़लां क़बीले के यतीमों, फ़लां क़बीले के मिसकीनों और फ़लां क़बीले के ज़रूरतमंदों में तक़सीम कर दो।”
अल्लाह तआला हज़रत सईद बिन आमिर जुमही (रज़ि) से राज़ी हो। वह उन लोगों में से थे जो ख़ुद मोहताज और ज़रूरतमंद होते हुए भी अपने ऊपर दूसरों को तरजीह देते थे।