कुरआन की बातें (भाग 18)

कुरआन की बातें

(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।

हिन्दी व्याख्याः- सूर: बय्यिन, इस सूर: में विशेष रूप से दो व्याख्यान हैं, पहला रसूल (ईश्दूत) का महत्व एवं उपयोगिता, तथा दूसरा रसूल को मानने और न मानने वालों में अन्तर।

यह दोनों प्रकरण दो विभिन्न धर्म समुदायों की पृष्ठभूमि में हैं, जिनमें एक समानता यह है कि वे काफ़िर हैं: एक वह जिन को पहले ईशग्रंथ दिये गये थे (क़ुरआन शरीफ़ में इस से तात्पर्य यहूदी एवं ईसाई धर्म के लोग होते हैं), दूसरे वे जिन के पास ईशग्रंथ के तौर पर कोई दावा नहीं है तथा इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि वे यद्यपि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सुपुत्र हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की कुल से थे किन्तु हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम के पश्चात कोई ईश्दूत उस कुल में नहीं जन्मा था। यह लोग काबा शरीफ़ के पड़ोसी एवं उसकी देखभाल करने वाले थे एवं बड़ी संख्या में मक्का में निवास करते थे।

यहां काफ़िर शब्द यहूदी, ईसाई एवं मक्का के बहुदेव वादियों के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है, अतः इस की व्याख्या अति आवश्यक है। {काफ़िर शब्द पर संक्षिप्त प्रकाश सूर: काफ़िरून (दरसे क़ुरआन 7) में भी डाला जा चुका है}

काफ़िर अपने व्यापक अर्थ में वह है जो:

अल्लाह को न माने (नास्तिक);

अल्लाह को एक न माने (मुशरिक/बहुदेववादी, जो अल्लाह के समान अन्य देवी-देवताओं को मान्यता देते हैं);

अल्लाह को एक माने, किन्तु और ख़ुदा भी माने (यहूदी, जो अपने ईश्दूत, हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम को अल्लाह का बेटा कहते थे। ईसाई हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को ख़ुदा, ख़ुदा का बेटा तथा तीन ख़ुदाओं में से एक मानते हैं);

अल्लाह को माने किन्तु अन्य सहायकों को भी माने (मुशरिकों का एक वर्ग एक ख़ुदा को तो मानता है किन्तु अन्य देवी-देवताओं को उसका सहायक मानता है जिसके बिना ख़ुदा का काम नहीं चलता);

अल्लाह तक पहुंचने के लिए अन्य देवी-देवताओं को वास्ता बनाए (ऐसे लोग अल्लाह की दुनिया के राजाओं महाराजाओं से तुलना करके यह आभास देते हैं कि उस तक प्रत्यक्ष रूप से पहुंचना संभव नहीं है।)

यदि कोई स्वयं को मुसलमान कहने या मुसलमान घर में पैदा होने के बावजूद इन में से किसी एक परिभाषा में आता है तो वह भी काफ़िर ही कहा जाएगा।

इन सभी अर्थों में काफ़िर से तात्पर्य यह है कि अल्लाह, जिस ने इस सृष्टि की रचना की, तथा इस कारण वह उपासना एवं पूजन का एकमात्र अधिकारी है, यह लोग इस से इंकार करते हैं या उसके अधिकारों को संकुचित कर देते हैं, तथा यह अधिकार अन्य को दे देते हैं।

इन दोनों प्रकार के काफ़िरों के संबंध में यहां कहा गया है कि वे सर्वप्रथम इस बात के अभिलाषी थे तथा यह आपत्ति कर सकते थे कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर क़ुरआन शरीफ़ का जो अवतरण हो रहा है वह मानवजाति के लिए व्यवहारिक नहीं है। इसी कारण अल्लाह तआ़ला ने ईशग्रंथ के साथ साथ ईश्दूत (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को भी भेजा जो उसमें अवतरित सच्चाई को स्वयं व्यवहार में लाकर दूसरों को नमूना दिखा दे। यही महत्व है रसूल का।

मक्का वासी कहते थे कि यह कैसा रसूल है जो हमारी तरह ही खाना खाता और बाजारों में चलता फिरता है। अल्लाह तआ़ला ने इस आपत्ति का भी न्यायोचित उत्तर दिया है कि यदि धरती पर फ़रिश्ते विचरण कर रहे होते तो हम फ़रिश्ते भी उतार देते। अब यह आपत्ति तो नहीं होगी कि क़ुरआन शरीफ़ की शिक्षाओं के अनुसार जीवन यापन कदापि असम्भव है। क्योंकि एक मानव ने उन पर आचरण करके नमूना प्रस्तुत कर दिया है।

अतः पहली दो आयात का अर्थ यही हुआ कि यहूदी, ईसाई एवं बहुदेववादी काफ़िर अपने विचार (पुरानी आस्था) से पलटने वाले नहीं हैं जब तक कि उनके सम्मुख स्पष्ट रूप से ईश्दूत आकर दैवीय ग्रंथ का पाठ एवं उसका स्वयं अनुसरण न करे। यह ईश्दूत ईश्वर की ओर से आया हुआ स्पष्ट प्रमाण है तथा जिन पन्नों को पढ़ कर सुना रहा है वे शाश्वत धर्म हैं।

तत्पश्चात, पूर्व में धर्मों के विभेद का कारण बताया गया है कि इन लोगों के पास ईशग्रंथ आ गया था, पर अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए उन्होंने धर्म से इतर धर्म बना लिया। जबकि हर धर्म की मूल शिक्षा यही होती है (तथा यही उनके धर्मग्रंथों में भी उल्लिखित था) कि निष्ठा एवं समर्पण की भावना के साथ अल्लाह की ही स्तुति करें, उसकी उपासना के क्रम में नमाज़ स्थापित करें, सामर्थ्यवान अपने धन से निर्धनों को ज़कात देते रहें। यही तो है धर्म का मर्म।

किन्तु उन्होंने ईश्वर की शिक्षा में अपने स्वार्थ के अन्तर्गत अपनी वासनाओं की मिलावट कर दी, तथा मुख्य धर्म को विकृत कर दिया। इसी कारण ऐसे लोग ईश्वर की दृष्टि में निम्नतम कृति हैं। वे पशु पक्षियों से भी अधिक गये गुज़रे हैं, क्योंकि पशु पक्षी भी अपने बनाने वाले का सदैव गुणगान करते हैं तथा जिन उद्देश्यों के लिए ईश्वर ने उनकी उत्पत्ति की है उससे तनिक भी नहीं डिगते। परिणाम स्वरूप अल्लाह ने ऐसे लोगों के लिए नर्क का द्वार खोल दिया है।

दूसरी ओर वे थोड़े लोग हैं जिन्हें अपने रब के वायदों पर पूरा भरोसा है। वे सद्कर्म के लिए एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर प्रतिभाग करते हैं। सद्मार्ग पर चलने में कष्ट सहते हैं परन्तु अडिग रहते हुए हर नर नारी, पशु पक्षी, जीव निर्जीव सभी के प्रति प्रेम-भाव रखते हैं। महाकृपालु ईश्वर ने उन्हें उच्चतम प्रकृति के लोगों की संज्ञा दी है। इनका परिणाम एवं सर्वोच्च पुरस्कार स्वर्ग में इनका स्थाई निवास है। वहां घने बाग़ होंगे, हर प्रकार के मेवे होंगे, अन्यान्य स्वादिष्ट नहरें होंगी, सेवारत लड़के एवं हूरें होंगी। संक्षेप में, वहां सभी प्रकार की सुख सुविधाएं उपलब्ध होंगी जिनकी यहां कल्पना भी नहीं की जा सकती।

अंत में यह सुखद आकाशवाणी होगी कि अल्लाह उन से प्रसन्न एवं उनके क्रियाकलापों से संतुष्ट हो गया। वे भी ईश्वर द्वारा किए गए वादों को पूर्ण रूप से सत्यापित पाएंगे एवं संतुष्टि के चरम पर होंगे। अल्लाह तआ़ला फ़रमाते हैं कि ऐसा तभी संभव हो सका है क्योंकि वे अपने रब से डरते रहे।

वास्तव में डर का यही सिद्धांत मनुष्य को सफल अथवा असफल बनाता है। डर इंसान के मन में निहित है। उसका सही स्थान पर प्रयोग उसकी सफलता की गारंटी है। क्षणिक उत्प्रेरकों से डर जाना एवं उस रब से न डरना जो वास्तव में लाभ-हानि यश-अपयश का कारक है, यही वह तिलिस्म है जिससे पार पाना पड़ेगा। यही अनवरत चलने वाले मृत्युपरांत जीवन में सफलता की कुंजी है।

रिज़वान अलीग, email – [email protected]

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