(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।
हिन्दी व्याख्याः- अंजीर एक रसदार फल है जो मध्य पूर्व एशिया में बहुतायत से/प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जिस में अकल्पनीय औषधीय गुण पाए जाते हैं। किन्तु यह अत्यंत कोमल/नाज़ुक होता है, तथा तुरंत संरक्षित न किया जाए तो ख़राब हो जाता है तथा किसी योग्य नहीं रहता।
जैतून एक अन्य लाभदायक फल है, जो मूलतः सीरिया, टर्की एवं मिस्र में पाया जाता है। इस का तैल मुख्य रूप से रामबाण औषधीय गुणों से ओतप्रोत है। यह फल देने में चालीस वर्ष लगा देता है।
सीनाई पर्वत मूल रूप से हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के संदर्भ में जाना जाता है। क़ुरआन शरीफ़ के अनुसार हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को ईश्वरीय आदेश इसी पर्वत पर उपलब्ध कराया गया।
नगर मक्का ऐतिहासिक दृष्टि से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम द्वारा बसाया गया है, किन्तु इस्लामी मान्यतानुसार ख़ान ए काबा की बुनियाद/नींव उसी स्थान पर प्रथम मानव हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के द्वारा रखी गई थी। यह नगर काबा शरीफ़ के कारण सदैव सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है, तथा उस युग में भी जब पूरा अरब गृहयुद्ध, चोरी डकैती, मार-काट तथा अशांति के कारण जाना जाता था, तब भी मक्का के यात्री एवं व्यापारी निश्चिंत होकर विचरण करते थे तथा उन्हें कोई कोई हानि नहीं पहुंचाता था। फिर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने वहां जन्म प्राप्त कर उसके सम्मान में चार चांद लगा दिए।
वस्तुत: इन चार वस्तुओं एवं स्थानों को साक्षी बनाकर ईश्वर ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही है। मानव संरचना सर्वोत्तम है। न तो उससे श्रेयस्कर कोई बनाया गया है, और न ही उससे बढ़कर कोई हो सकता है। ईश्वर की योजना में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मनुष्य जैसा कोई नहीं है। तकनीकी रूप से एवं नैतिक रूप से मनुष्य ईश्वर की उत्कृष्ट कृति है। यह बात क़ुरआन शरीफ़ में बार बार कही गई है।
इस का सबसे बड़ा प्रमाण उपरोक्त वस्तुएं हैं। विशेष रूप से अंजीर जो असीमित रूप से लाभकारी होती है किन्तु शीघ्र नाशवान है। जैतून पूर्णता को प्राप्त करने में चालीस वर्ष का समय लेता है। इन औषधीय गुणों के अतिरिक्त विशेष यह है कि जिस धरती पर यह उगते हैं, वहां अन्यान्य ईश्दूतों (नबियों एवं पैग़म्बरों) का वास रहा है। इस अर्थ में यहां जिन चार वस्तुओं को साक्षी बनाया गया है वे सब स्वयं अथवा उनके उत्पत्ति स्थल नबियों एवं पैग़म्बरों के जन्मस्थल अथवा कार्यस्थल रहे हैं। हज़रत नूह अलैहिस्सलाम से लगायत हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम, हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम, हज़रत इस्हाक़ अलैहिस्सलाम, हज़रत लूत अलैहिस्सलाम, हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम, हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इन्हीं स्थानों में रहे।
अब इन आयतों से तात्पर्य यह है कि ईश्दूतों की धरती इस तथ्य का प्रमाण है कि चूंकि उनसे उत्तम कोई नहीं हो सकता, अतः उनके बल पर सम्पूर्ण मानवजाति गर्व के साथ यह दावा कर सकती है कि मनुष्य जैसा इस ब्रह्माण्ड में (ईश्वर के अतिरिक्त) कोई नहीं है।
मनुष्य में ऐसा क्या है कि उसे सर्वश्रेष्ठ कहा जाए, तथा फ़रिश्ते जो दिन-रात उसकी सेवा एवं में रत हैं वे भी वह स्थान नहीं प्राप्त कर सके। कारण है कि मनुष्य को यहां अधिकार प्राप्त है कि चाहे तो भले कार्य करे, चाहे तो बुरे। कोई उसका हाथ पकड़ कर मजबूर करने वाला नहीं है। यह अधिकार प्राप्त मनुष्य यदि पाप को नकार कर पुण्य एवं परोपकार के मार्ग पर अडिग रहता है, तब तो वास्तव में उस से महान कोई अन्य नहीं हो सकता।
तकनीकी रूप से उसकी महानता यह है कि उसे देखने, सुनने, सूंघने, चखने, समझने की संतुलित शक्ति देने के साथ ईश्वर ने उसे ज्ञान वर्धन, संस्कार तथा अन्य जीवों पर अधिकार एवं नियंत्रण रखने तथा आवश्यकतानुसार आविष्कार करने के योग्य बनाया। उसके आंख, नाक, कान, मुंह, हाथ, पैर इतने सुव्यवस्थित ढंग से बनाए कि अन्य पशु-पक्षी उसके आसपास भी नहीं फटकते। इस की बानगी यह है कि मनुष्य एक कौर खाने के लिए हाथ से उठाता है (पशुओं की भांति केवल मुंह का प्रयोग नहीं करता), उठाते समय आंखों ने अवलोकन कर लिया कि वह वस्तु खाने योग्य है। नाक ने सूंघ कर बता दिया कि उस में सड़ांध नहीं है तथा मुंह तक ले जाने के लायक है। मुंह ने उसका स्वाद लिया तथा घोंटने के लिए अग्रसारित कर दिया। कहीं भी रिपोर्ट यदि नकारात्मक होती, तो हाथ वहीं रुक जाता तथा भोजन को हानि पहुंचाने से पूर्व ही नष्ट कर दिया जाता। फ़रिश्ते तो खाना खाते नहीं हैं, तथा किसी भी पशु पक्षी को यह विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। इस के अतिरिक्त वे ईश्वर की स्तुति एवं आराधना करने के लिए बाध्य हैं, उन्हें इस के विपरीत कुछ करने का अधिकार नहीं प्राप्त है।
यह मानव रूपी उत्तम कृति फिर अंजीर की भांति शीघ्र ही पतन की ओर दौड़ पड़ती है यदि वह संरक्षित न की जाए। उसका गिरने का स्तर निम्न से निम्नतम हो जाता है। पशुओं को सर्वथा निम्न समझा जाता है। सुअर, सांप, बिच्छू से तो कोई प्यार नहीं करता। शेर तथा अन्य नरभक्षी पशुओं से किसी दया की अपेक्षा नहीं की जा सकती। कौवा तथा गिद्ध अलग-अलग कारणों से पसंद नहीं किए जाते। फिर कीड़े मकोड़े, मक्खी मच्छर तथा अदृश्य वायरस एवं कीटाणु रोग का संचार करने वाले होते हैं, तो उनके प्रति घिन्न तथा घृणा का भाव व्याप्त रहता है। मनुष्य जब ईश्वर की अवज्ञा करने जैसा अपराध करता है तो वह अपने कर्मों के अनुसार अपने स्तर से गिर जाता है।
इस का अर्थ यह है कि पशु-पक्षी जो कभी प्रकृति के विरुद्ध नहीं चलते तथा जिस उद्देश्य के लिए ईश्वर ने उन्हें बनाया है, उसकी पूर्ति करने में कोई संकोच नहीं करते, इस प्रकार वे अवज्ञाकारी मनुष्य से श्रेष्ठ हैं। इस के अतिरिक्त, मनुष्य के मन से जब ईश्वर का भय निकल जाता है, तो वह पाशविक कृत्यों में पशु पक्षियों को भी शर्मसार/ग्लानियुक्त कर देता। एक बाघ अपने शिकार में से आवश्यकतानुसार तथा भूखभर ही खाता है, तथा अनावश्यक रूप से मरे हुए प्राणि के साथ चीरफाड़ नहीं करता है। परन्तु मनुष्य बदले, क्रोध, शत्रुता एवं उन्माद में अपने विरोधी को निर्लज्ज होकर क्षति पहुंचाता है। धर्म एवं जाति के अहंकार में डूबकर वह प्रतिशोध स्वरूप केवल एक या दो व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं रहता, अपितु पूरी-पूरी बस्ती उजाड़ देता तथा महिलाओं, अवयस्कों, वृद्धों एवं आशक्तों पर अपनी तथाकथित मर्दानगी का प्रदर्शन अधिक करने लगता है।
इसी प्रकार लोभ, स्वार्थ, नशा, अश्लीलता, कमीनापन की सिद्धि के लिए वह किस स्तर तक गिरता है, कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आए दिन इस के उदाहरण मिलते रहते हैं। आखिर तोप, पिस्तौल से लगायत परमाणु एवं हाइड्रोजन बम किस उद्देश्य के लिए आविष्कार किए गए हैं। वह हर बलिष्ठ एवं लाभकारी, यहां तक कि अपने हाथों द्वारा निर्मित वस्तुओं के आगे नतमस्तक हो जाता है। यह है निम्न से निम्नतम स्तर की ओर गिरना।
क़ुरआन शरीफ़ की इस सूर: के अनुसार केवल वही लोग उच्चतम स्तर को प्राप्त होते हैं जिनका ईश्वर तथा मृत्युपरांत जीवन में अटूट विश्वास एवं गहरी आस्था होती है। वे खुले छिपे हर हाल में पुण्य के कार्य करते रहते हैं।
ऐसे लोगों के लिए ईश्वर का वचन है कि उन्हें निर्बाध पुरस्कार तथा प्रशस्ति मिलती रहती है। वे ईश्वर की दृष्टि में भी सम्मानित हैं तथा उपकृत व्यक्तियों की दुआओं तथा आशीर्वादों की छत्रछाया में आगे बढ़ते रहते हैं।
मनुष्य के जीवन के इस क्रमिक विकास अथवा विनाश का उल्लेख वास्तव में इस कारण है कि ईश्वर न्यायप्रिय है। जीवन में ऐसे भिन्न भिन्न प्रदर्शन करने वालों का अंत एक समान कैसे हो सकता है। आगे अल्लाह तआ़ला ने यक्ष प्रश्न किया है कि अब कौन है जो मृत्युपरांत हिसाब किताब को झुठलाएगा। एक सामान्य समझ बूझ वाला भी यही चाहता है कि अच्छे कार्यों की प्रशंसा हो, तथा उसका उचित पुरस्कार मिले। वहीं दूसरी ओर, बुरा करने वाले बुरे अंजाम से दो चार हो तथा उसे न्यायोचित दण्ड मिले। संसार वह स्थान नहीं है जहां यह सब संभव हो सके। क्योंकि यह कर्मस्थल है। अतः मृत्युपरांत ईश्वर ने इस की व्यवस्था कर रखी है, जहां संतोषजनक पुरस्कार एवं दण्ड प्रदान किया जाएगा।
आखिर में अल्लाह तआ़ला ने पूछा है कि क्या हो गया है कि तुम को इतनी मोटी बात समझ में नहीं आती। क्या ईश्वर के संबंध में तुम किसी प्रकार की भ्रांति में हो? क्या वह जिस ने सब कुछ रच दिया न्यायविद नहीं लगता? जिस ने ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु सटीक गणितीय सिद्धांत के अनुरूप बनाई, तुम्हें कभी भी अंगुली रखने का अवसर नहीं दिया, क्या इन सब का अंत अललटप हो जाएगा? क्या उस अंत में कोई तार्किकता नहीं रह जाएगी? यही अर्थ है उस प्रश्न का जो अंतिम आयत में किया गया क्या अल्लाह सब न्यायाधीशों से अधिक सक्षम न्यायाधीश नहीं है। अंतिम वाक्य का इन्हीं, संदर्भों में एक अर्थ यह भी उपयुक्त है कि क्या ईश्वर सर्वाधिक कुशल एवं सक्षम शासक नहीं है। एक कुशल शासक कभी नहीं चाहेगा कि उस के राज में अव्यवस्थाओं का बोलबाला हो। इसी कारण वह शांति बनाए रखने का प्रयास करेगा जिसका स्वाभाविक एवं सीधा रूप यही है कि बिना भेदभाव के सभी को उचित न्याय मिले।
रिज़वान अलीग, email – [email protected]