कुरआन की बातें (भाग 24)

कुरआन की बातें

(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।

हिन्दी व्याख्या:- सूर: ज़ुह़ा, यह सूर: आरम्भ काल की है, जब प्रारम्भिक कुछ अवतरणों के पश्चात आंशिक रूप से (25-40 दिनों तक) विराम लग गया था। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम चिंतित थे कि मुझ से जाने अंजाने में कहीं कुछ ऐसा तो नहीं हो गया कि मेरा मालिक रुष्ठ हो गया तथा इसी कारण अवतरण रोक लिया, सदैव के लिए मुझे छोड़ दिया है तथा अब कोई सुख-समाचार भी नहीं लेगा। इसी प्रकार के असमंजस में से आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को निकालने तथा सांत्वना देने के लिए यह सूर: उतारी गई।

इस में सर्वप्रथम ईश्वर ने चमकदार दिन तथा उसके पश्चात आने वाली शांतिमय रात्रि को साक्षी बनाया है। इस का दो अर्थ है। पहला यह कि ऐ मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), यदि वह़ी (अवतरण) अभी बाधित है, तो आप के ही भले के लिए है। क्योंकि अभी प्रारम्भिक काल में अवतरण का कार्य आप पर भारी तथा उस के कारण आप को कष्ट हो सकता है। जिस प्रकार कड़े दिन के उपरांत ठंडी एवं शांतिपूर्ण रात्रि सुखद होती है तथा थकान मिटा कर अगले दिन परिश्रम एवं कर्तव्य के लिए तैयार करती है, उसी प्रकार अवतरण में रुकावट रात्रि के समान है जो आपको आगे भारी एवं अनवरत जारी रहने वाले अवतरण की श्रृंखला के लिए मानसिक एवं शारीरिक रूप से तैयार कर देगी।

इस का दूसरा अर्थ यह है कि जिस प्रकार दिन-रात का आना-जाना एक सामान्य घटनाक्रम है, उसी प्रकार अवतरण को देना तथा उसे रोकना भी एक सामान्य प्रक्रिया है। जैसे दिन का प्रकाश अथवा गर्मी किसी से प्रसन्न अथवा अप्रसन्न होने के कारण नहीं होता, उसी प्रकार यदि अवतरण में कोई विलम्ब हुआ है तो उस का कारण यह नहीं है कि वह दयाशील रब आप से अप्रसन्न होकर आपको छोड़ चुका है।

भ्रान्ति का निवारण करने के पश्चात ईश्वर ने चौथी आयत में सांत्वना के ऐसे बोल बोले जो उस समय में असम्भव से प्रतीत होते थे। पर उन दैवीय शब्दों ने पतित मन पर असीम कृपा की। अल्लाह तआ़ला फ़रमाते हैं कि हर आने वाला समय आप के पिछले अनुभव से उत्तम होता जाएगा। आप की ख्याति एवं यश में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी तथा कठिनाइयों के दिन नियमित रूप से सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण होते जाएंगे। इस का एक अन्य अर्थ यह है कि इस दुनिया के उपरांत उस संसार में (मृत्युपरांत) आप की परिस्थितियां ईर्ष्या की पात्र होंगी।

इसी पर बस नहीं, इस वाक्य की पूर्ति उसी जैसे अर्थों में दूसरे वाक्य से की गई है। इस से ज्ञात होता है कि ईश्वर को अपने प्रिय नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तनिक सी परेशानी भी कितनी भारी पड़ती है। वह उन्हें प्रसन्न करने के लिए कहता है। जल्दी ही तुम्हारा रब तुम्हें इतना प्रदान करेगा कि तुम संतुष्ट हो जाओगे। और इतिहास साक्षी है कि ऐसा अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ। आप की ख्याति, आप का सम्मान, आपके प्रति निष्ठा, समर्पण एवं प्रेम उपलब्ध लोकप्रियता के सभी मापदंडों एवं कीर्तिमानों से परे हैं।

तत्पश्चात ईश्वर आपके जीवन के तीन अभावों का वर्णन करता है तथा उसमें उसने क्या कृपा किया यह बताता है। पहला यह कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अनाथ ही पैदा हुए थे। वे जब मां के पेट में छः माह के ही थे, तो एक यात्रा के दौरान आपके पिता जी का स्वर्गवास हो गया था। फिर माताजी ने आपका पालन पोषण किया। छः वर्ष की अवस्था में हुए, तो माताश्री भी परलोक सिधार गईं। माता जी के पश्चात दादाजी ने अपने प्रिय पोते को माता-पिता दोनों का अभाव न होने देने का प्रयास किया। पर दो वर्ष पश्चात उनकी छत्रछाया भी छिन गई। तब चाचा, अबू तालिब, ने बड़े स्नेह एवं लाड़-प्यार से आपको अपने बच्चे की तरह पाला।

अतः यहां अल्लाह तआ़ला फ़रमाते हैं कि तुम ने यह कैसे सोच लिया कि तुम्हारे रब ने तुम्हें छोड़ दिया है। उस ने तो बिना बाप एवं समस्त भौतिक संसाधनों के अभाव में भी तुम्हारे लिए कोई कमी नहीं छोड़ी। तथा राजाओं के समान तुम्हारा लालन-पालन किया।

दूसरा उपकार यह किया कि तुम जिन राहों की खोज में थे, उस का मार्ग प्रशस्त कर दिया। मक्का वासी तो धर्म कर्म के संबंध में कुछ जानते नहीं थे। काबा शरीफ़ की रखवाली करने के कारण वह पूरे क्षेत्र में सम्मानित थे। वे काबा शरीफ़ की चाभी के स्वामी थे, हाजियों (तीर्थयात्रियों) को पानी पिलाते तथा यदा-कदा आवश्यकता होने पर खाना काबा की मरम्मत आदि के कार्य भी करते थे, पर वास्तव में क्या सही तथा क्या ग़लत कर रहे हैं इस बारे में वे सर्वथा अनभिज्ञ थे। काबा शरीफ़ में ईश्वर का गुणगान भी होता था तथा 365 से अधिक मूर्तियां भी रखी हुई थीं, जिनकी स्तुति एवं आराधना धर्म समझ कर की जाती थी। यहूदी एवं ईसाई भी अपनी मूल शिक्षा से विरत थे। यद्यपि वे अत्यंत पढ़े लिखे जाने जाते थे, पर वे भी शिर्क (बहुदेव वाद) से बचे हुए नहीं थे। ऐसे में हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बहुत चिंतित रहा करते थे। यह तो समझ में आता था कि लोग जो कर रहे हैं, वह गलत है, पर सही क्या है यह उन्हें भी नहीं पता था।

ईश्वर ने दया खाई तथा अपनी अनुकम्पा से उन्हें सत्य की राह दिखाई।

तीसरा उपकार आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दरिद्रता को दूर करना था। अनाथ जन्मे व्यक्ति को कौन पूछता है, पर ईश्वर की ऐसी कृपा दृष्टि थी कि सम्पूर्ण मक्का की सर्वाधिक धनवान स्त्री, हज़रत ख़दीजा रज़ियल्लाहु अ़न्हा, ने अपने व्यापार में आप से सहयोग लिया, फिर अत्यंत प्रभावित हो कर आप से विवाह कर लिया। (ज्ञातव्य हो कि उस समय हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मात्र 25 वर्ष के थे तथा हज़रत ख़दीजा 40 वर्ष की विधवा थीं।) तत्पश्चात आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनके व्यापार को भी नयी ऊंचाई दी, एवं स्वयं भी आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो गये।

इन तीनों उपकारों का वर्णन करने के पश्चात कृतज्ञतापूर्वक आप को तीन अन्य कार्य करने का आदेश दिया गया:

अनाथ का अनादर न करें, उसके साथ भी वैसा ही उपकार करें जैसा ईश्वर ने आप के साथ किया है। उसे उसके अभाव का आभास भी न होने दें। वह आपके (तथा बाद में आप के अनुयायियों द्वारा) कृपा, सहानुभूति तथा सम्मान का अधिक पात्र है, न कि अनादर, क्रोध अथवा दुर्व्यवहार का।

मांगने अथवा प्रश्न करने वाले को न झिड़कें, क्योंकि आप जिस उच्च कोटि पर स्थापित किए गए हैं वहां ऐसे बहुत से लोगों से वास्ता पड़ेगा। आप के पास आने वाले निर्धन भी होंगे तथा धर्म की जानकारी लेने वाले भी होंगे। आप का धार्मिक कर्तव्य है कि जो भी जिस आशा में आप के पास आता है, उसकी जिज्ञासा को शांत किया जाए तथा उसकी झोली भर दी जाए।

ईश्वर के उपकार का बखान करें। बखान करने का वृहद अर्थ यह है कि न केवल सब के समक्ष ईश्वर की अनुकम्पा की चर्चा करें (क्योंकि समस्त वस्तुओं को देने वाला वही है), अपितु हर उपकार के बदले में उसके उपयुक्त कार्य करें। दृष्टि दी है, तो ब्रह्मांड में बिखरे ईश्वर के चमत्कारों को देखें तथा अन्य के समक्ष उसकी व्याख्या करें। वाणी दी है, तो उस की महानता का गुणगान करें। शक्ति का प्रयोग उसकी बड़ाई को स्थापित करने में लगाएं तथा धन दौलत को दीन दरिद्र की सेवा में समर्पित कर दें।

यह तो केवल बानगी है। मनुष्य को चाहिए कि सदैव (दिन रात तथा वर्ष के 365 दिन) ईश्वर के आदेशों के अनुसार तथा उसी की सत्ता के समर्थन में अपना सर्वस्व समर्पित कर दे।

इस प्रकार इस सूर: का आरंभ अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की चिंता का निवारण करने तथा सांत्वना के दो शब्द  से होता है। मध्य में दैवीय उपकारों तथा अनवरत उसकी कृपा दृष्टि के बने रहने का वर्णन है। तथा अंत में स्वयं हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को उसी प्रकार के उपकारों के लिए प्रेरित किया जा रहा है तथा उनके आगे काम आने वाले कर्तव्य की ओर संकेत किया गया है।

रिज़वान अलीग, email – [email protected]

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