कुरआन की बातें (भाग 41)

कुरआन की बातें

(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।

हिन्दी व्याख्या:- सूर: अ़बस (भाग 1), यह सूर: एक विशेष पृष्ठभूमि में उतरी है। एक बार हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मक्का के कुछ सरदारों को दीन समझा रहे थे तथा यह आशा रखते थे कि यदि उनमें से कोई इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेता है तो यह शुभ संकेत होगा तथा उनके प्रभाव क्षेत्र के व्यापक होने के कारण अधिक लोग मुस्लिम हो जाते। इसी बीच एक सगे संबंधी अब्दुल्लाह बिन उम्मे मकतूम, जो आंखों से अंधे थे, पधारे। वे धर्म संबंधी कुछ जानकारी चाहते थे या कुछ पूछना चाहते थे। उनके आने से बातचीत का क्रम टूट गया तथा जो उद्देश्य की प्राप्ति अपेक्षित थी वह अधूरी रह गई। इस पर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम थोड़ा असहज हुए। उनका यह समझना था कि एक ऐसा व्यक्ति जो दोनों आंखों से अपंग हो, वह इस्लाम के प्रचार प्रसार में उतना सहायक नहीं हो सकता जितना वे लोग जो समाज के सरदार हैं, प्रभावशाली हैं एवं पूर्ण रूपेण सक्षम हैं। इसी प्रकार जो पहले मुसलमान भी हो चुका हो, वह नर्क की अग्नि से बच गया तथा मुक्ति पा गया। जबकि वे लोग जो अभी धर्म के शुद्ध रूप से दूर हैं तथा नर्क में जलेंगे उन्हें नर्क से बचाना अधिक वरीय है। अतः उस परिस्थिति में हज़रत अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु के आने से थोड़ा त्योरी पर बल पड़ गया।

इसी परिप्रेक्ष्य में यह सूर: उतरी है तथा इस में जहां वरीयता क्रम से संबंधित प्रारंभिक जानकारी दी गई है, वहीं मनुष्य को उसकी औकात (मूल उत्पत्ति) बताते हुए मरने के पश्चात् के संबंध में उसका ज्ञानवर्धन किया गया है तथा उसकी तैयारी करने की उससे अपेक्षा की गई है।

पहली ही आयत में ‘त्योरी चढ़ाई’ की स्पष्ट पृष्ठभूमि में यद्यपि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हैं किन्तु अन्य पुरुष में उसी बात को कह कर प्रत्यक्ष रूप से आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को आरोपित नहीं किया गया है तथा यह संदेश दिया गया है कि सामान्य रूप से ऐसा किया जाना वांछनीय नहीं है।

त्योरी चढ़ाई तथा मुंह फेर लिया क्योंकि अंधा आ गया। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ऐसा स्वभाव कदापि नहीं है, न ही उन्होंने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ऐसा किया तथा न ही उनके अंधेपन के कारण कोई हीनभावना ही थी। वे तो अल्लाह के दीन के व्यापक प्रचार-प्रसार का भरपूर प्रयास कर रहे थे। इस्लामी शिक्षा में यह व्यवहार उचित नहीं है।

कारण – संभवतः यह अंधा व्यक्ति पवित्रता को अंगीकार कर लेता, तथा यही इस्लाम धर्म का संदेश है कि व्यक्ति छल-कपट, लोभ, वासना, स्वार्थ आदि से स्वयं भी पवित्र हो जाए तथा औरों को भी इसी पथ का पथिक बना डाले।

वह पवित्रता का पात्र न भी बनता तो कम से कम कुछ सीख ही प्राप्त कर लेता जो अंततः उसे कहीं न कहीं लाभ पहुंचाती।

अब दो चरित्र के लोगों को प्रस्तुत किया गया है तथा उनके मध्य किसे वरीयता देनी चाहिए इस का सिद्धांत बताया गया कि एक ओर वह है जो तुमसे दूर-दूर रहता है और तुम उससे चिपके जाते हो तथा उससे निकटता बढ़ाने का प्रयास करते हो। यद्यपि ऐसे व्यक्ति के पवित्रता के धर्म को अंगीकार न करने का कोई दोष तुम्हारे ऊपर नहीं होगा। अतः जो अपना सर्वस्व परित्याग कर तुम्हारी ओर दौड़ा आता है और ईश्वर का भय भी उसके हृदय में है तो उसे भी समय अवश्य दो। क्योंकि यह नसीहत है, परामर्श एवं सीख है। जो इसे स्वीकार करेगा, स्वयं लाभ में रहेगा।

यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है। यह ईश्वरीय ग्रंथों में से एक पवित्र ग्रंथ है। इस का स्थान एवं श्रेणी उच्चतम है। इस का सम्मान धरती व आकाश की समस्त वस्तुएं एवं प्राणी करते हैं। इस को लाने वाले दूत भी स्वयं सम्मानित हैं। उनपर मिलावट का कोई आरोप नहीं है।

इस पर भी मनुष्य यदि इस पुस्तक पर विचार नहीं करता है तो वह अपनी कब्र स्वयं खोद रहा है। फटकार है ऐसी समझ रखने वाले पर। अब तो इस की उपेक्षा का कोई कारण नहीं होना चाहिए। अब तो आगे बढ़ कर इसे आलिंगनबद्ध करना चाहिए।

रिज़वान अलीग, email – [email protected]

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