हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा सह्मी (रज़ि)

शख़्सियत

हमारी इस कहानी का हीरो असहाब ए रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) में से वह शख़्स है, जिसका नाम अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा है। मुमकिन था कि तारीख़ इस शख़्स की तरफ़ भी कोई तवज्जो ना करती और इसका कोई ख़्याल दिल में लाए बग़ैर इसी तरह गुज़र जाती जिस तरह इससे पहले के लाखों अरबों को नज़रअंदाज़ करती हुई गुज़र गई है। लेकिन इस्लाम ने अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा सह्मी के लिए उनके दो हमअस्र (एक ही समय के) और अपने वक़्त के बड़े बादशाहों—- शहंशाहे ईरान क़िसरा और शहंशाहे रूम क़ैसर से मुलाक़ात का मौक़ा फ़राहम कर दिया था और इन दोनों से उनकी मुलाक़ात के साथ एक ऐसी दास्तान वाबस्ता हो गई जो हमेशा के लिए ज़माने की याददाश्त में महफूज़ हो चुकी है और जिसको तारीख़ की ज़बान बराबर दुहराती रहेगी।
शहंशाहे ईरान क़िसरा के साथ उनकी मुलाक़ात का क़िस्सा सन छह हिजरी से तअल्लुक़ रखता है, जब नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने कुछ सहाबा के ज़रिए शाहाने अजम (ग़ैर अरबी बादशाह) के पास दावती खु़तूत (ख़त) भेजे और इन खु़तूत के ज़रिए उन्हें इस्लाम की दावत देने का इरादा किया था. रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इस मुहिम के दौरान पेश आने वाले ख़तरों का पूरा पूरा अंदाज़ा था, क्योंकि इन क़ासिदों को ऐसे दूर-दराज़ इलाकों में जाना था जिनसे इससे पहले उनको कोई वास्ता नहीं पेश आया था। साथ ही वह इन इलाकों की ज़बानों और वहां के हुक्मरानों के मिज़ाज को भी नहीं जानते थे। फिर मज़ीद यह कि उन्हें उनको अपने पुराने दीन को छोड़ने, अपने एक़्तेदार व मनसब से अलग हो जाने और एक ऐसी कौम के दीन में दाख़िल होने की दावत देनी थी जो कुछ अर्सा पहले ही उनके मातहत रह चुकी थी। यक़ीनन यह एक निहायत ख़तरनाक सफ़र था जिस पर रवाना होना मौत के मुंह में जाने और उससे ज़िंदा व सलामत वापस आना नया जन्म पाने के बराबर था। इस मुहिम के आने वाले ख़तरात के पेशे नज़र रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा किराम (रज़ियल्लाहु अन्हु) को मशवरे के लिए जमा किया और उनके सामने ख़ुत्बा देने के लिए खड़े हुए। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अल्लाह तआला की हम्द व सना के बाद फ़रमाया: “मैं तुम में से कुछ लोगों को शाहाने अजम के यहां सिफ़ारत पर भेजना चाहता हूं। तुम लोग इसमें मुझसे एख़तेलाफ़ ना करना जैसा की बनी इसराईल ने ईसा अलैहिस्सलाम से एख़तेलाफ़ किया था।”
जवाब में सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया:
“अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! आप हमको जहां चाहें भेज दें। हम आपका हर पैग़ाम ख़ुशी-ख़ुशी पहुंचाने के लिए तैयार हैं।”
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अरब व अजम के बादशाहों के पास अपने को ख़ुतूत पहुंचाने के लिए छह सहाबा को तलब फ़रमाया। उनमें से एक हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा सहमी भी थे। उन्हें शहंशाहे ईरान क़िसरा के यहां रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का पैग़ाम पहुंचाने के लिए मुंतख़ब (चुन्ना) किया गया।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा सहमी (रज़ियल्ल्हु अन्हु) ने अपनी ऊंटनी को सवारी के लिए तैयार किया। बीवी बच्चों से रुख़सत हुए और तने तनहा अपनी मंज़िले मक़सूद का रुख़ किया, वह रास्ते की ऊँच नीच को तय करते और सफ़र की मशक़्क़तों को बर्दाश्त करते हुए ईरान पहुंचे तो दरबारियों से क़िसरा के साथ मुलाक़ात ख़्वाहिश का इज़हार किया। और उनको उस ख़त से भी आगाह कर दिया जिसे वह बादशाह के लिए लेकर आए थे, क़िसरा को इसकी ख़बर हुई तो उसने अपने दरबार को सजाने का हुक्म दिया और अपने तमाम बड़े बड़े अफ़सरों को दरबार में हाज़री की हिदायत की। सारी तैयारियां मुकम्मल हो गईं तो उसने हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) को दरबार में तलब किया, उस वक़्त उनके जिस्म पर हल्का सा कंबल और मामूली सी अबा (एक कपड़ा) और उनके हुलिये बदवी अरबों की सादगी का इज़हार हो रहा था। लेकिन उनका सर बहुत बड़ा और क़द काफी लंबा था और उनका दिल इस्लाम की अज़मत से भरा था। क़िसरा ने उनको अपनी तरफ़ बढ़ते देखा तो एक दरबारी को इशारा किया कि वह ख़त उनके हाथ से ले ले। मगर हज़रत अब्दुल्ला ने कहा कि नहीं! रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हुक्म है कि मैं यह ख़त अपने हाथ से आप के हवाले करूं और मैं रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हुक्म के ख़िलाफ़ वर्ज़ी नहीं कर सकता। क़िसरा ने दरबारियों से कहा कि छोड़ दो, उसको मेरे पास आने दो। हज़रत अब्दुल्लाह ने क़िसरा के क़रीब जाकर ख़त उसके हवाले कर दिया। और उसने अपने अरब सेक्रेट्री को बुलाया जो हीरा का बाशिंदा (रहने वाला) था और उसे अपने सामने ख़त खोलने और उसको पढ़ने का हुक्म दिया। उसने ख़त खोलकर पढ़ना शुरू किया।
ख़त का इतना हिस्सा सुनते ही उसके सीने में ग़ुस्से की आग भड़क उठी, उसका चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया और गर्दन की नसें तन गईं। क्योंकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ख़त की शुरुआत अपने नाम से की थी। उसने सेक्रेटरी के हाथ से ख़त झपट लिया। और उसमें लिखी हुई चीज़ों को जाने बग़ैर उसे पुरज़ा पुरज़ा करते हुए चीख़ उठा “मेरा ग़ुलाम, और मुझे इस तरह ख़त लिख रहा है?” फिर उसने हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा को दरबार से निकाल बाहर करने का हुक्म दिया। चुनांचे वह वहां से निकाल दिए गए। हज़रत अब्दुल्लाह दरबार से निकले तो उन्हें कुछ पता नहीं था कि अब अल्लाह तआला उनके साथ क्या मामला करने वाला है। या वह क़त्ल कर दिए जाएंगे या उन्हें आज़ाद छोड़ दिया जाएगा? लेकिन फिर उन्होंने अपने दिल में कहा:
“ख़ुदा की क़सम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ख़त पहुंचाने के बाद अब मेरा जो भी हो मुझे इसकी बिल्कुल भी परवाह नहीं है।”
उधर जब क़िसरा का ग़ुस्सा ख़त्म हुआ तो उसने हज़रत अब्दुल्लाह को दोबारा अपने सामने पेश किए जाने का हुक्म दिया लेकिन वह नहीं मिले। उसके आदमियों ने बहुत तलाश किया मगर उनका कोई सुराग़ ना मिला। उन लोगों ने जज़ीरा ए अरब तक जाने वाले तमाम रास्तों को छान मारा मगर वह उनके हाथ से निकल चुके थे।
जब हज़रत अब्दुल्लाह दरबार ए नबवी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) में हाज़िर हुए तो उन्होंने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को क़िसरा के साथ पेश आने वाले तमाम वाक़िआत की ख़बर दी और खत फाड़ने की कहानी से भी आपको आगाह किया। उनकी पूरी बात सुनकर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सिर्फ़ इतना फ़रमाया “अल्लाह तआला उसकी सल्तनत को पारा पारा कर दे।”
इधर क़िसरा ने अपने यमन के गवर्नर बाज़ान को लिखा कि उस शख़्स के पास जिसने हिजाज़ में नबूवत का दावा किया है, अपने दो ताक़तवर और बहादुर आदमियों को भेजो और उन्हें हुक्म दो कि उसे पकड़ लाएं और मेरे सामने पेश करें। हुक्म के मुताबिक़ बाज़ान ने अपने दो बेहतरीन आदमी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरफ़ रवाना किए और उन दोनों के हाथ आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को एक ख़त भी भेजा जिसमें उसने लिखा कि “आप बिला ताख़ीर उनके साथ क़िसरा के सामने पेश होने के लिए चले आएं।” उसने इन दोनों से यह भी कहा कि वह नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हालात पूरी तरह मालूम करें और उनके मुतअल्लिक़ तफ़सील से मालूमात फराहम करके उसको बताएं।
वह दोनों मुसलसल और तेज़ रफ़्तारी के साथ सफ़र के मराहिल तय करते हुए ताएफ़ पहुंचे। वहां उनकी मुलाक़ात क़ुरैश के एक तेजारती काफ़िले से हुई। उनसे मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बारे में पता किया तो मालूम हुआ कि वह यसरब में हैं। इसके बाद ताजिर खुशी खुशी मक्का पहुंचे और उन्होंने क़ुरैश को ख़ुशख़बरी देते हुए कहा कि “यह बात तुम्हारे लिए बहुत ख़ुशी की है कि किसरा मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पीछे पड़ गया है और उसने तुम्हें उसके शर से बचा लिया है।” उधर उन दोनों ने मदीना का रुख़ किया। वहां पहुंचकर नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मिले और बाज़ान का ख़त आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हवाले करते हुए कहा कि शहंशाहे किसरा ने अपने हाकिम बाज़ान को हिदायत की है कि वह आप को लाने के लिए किसी को भेजें। चुनांचे हम इसीलिए आए हैं कि आप हमारे साथ चले चलें, अगर आप हमारी बात मान लें तो हम किसरा से बात करके आपके लिए रिआयत हासिल कर लेंगे और आपको उसकी तरफ़ से पहुंचने वाली हर तकलीफ़ से बचा लेंगे। लेकिन अगर आपने हमारी बात मानने से इनकार किया तो आप ख़ुद उसकी ताक़त को अच्छी तरह जानते हैं। आप यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि वह आपको और आपकी पूरी क़ौम को तबाह व बर्बाद करने की ताक़त रखता है।
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनकी यह बातें सुन कर मुस्कुराते हुए फ़रमाया कि “आज तो तुम लोग अपनी क़यामगाह (रहने की जगह) पर वापस जाओ, कल फ़िर आना.” जब दूसरे दिन वह दोनों रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और पूछा कि “क्या आपने हमारे साथ चलने और किसरा से मिलने के लिए ख़ुद को तैयार कर लिया है?” तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया कि “आज के बाद तुम किसरा से नहीं मिल सकोगे। अल्लाह तआला ने उसके बेटे शेरवैह को फ़लां महीने की फ़लां रात को उसके ऊपर मुसल्लत करके उसे हलाक कर दिया है।”
यह सुना तो उनके चेहरों पर दहशत व हैरानी के आसार ज़ाहिर हुए और वह टकटकी बांधकर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरफ़ देखने लगे। फिर वह अपनी हैरत पर क़ाबू पाते हुए बोले:
“जानते हैं आप यह क्या कह रहे हैं? क्या यह बात हम बाज़ान को लिख दें?”
“हां और उसको यह भी लिख देना कि मेरा दीन किसरा की सल्तनत के आख़िरी हुदूद तक पहुंचेगा और उसे यह भी लिख दो कि अगर तुम इस्लाम क़बूल कर लो तो मैं तुम्हारा यह सारा इलाक़ा जिस पर तुम हुकूमत कर रहे हो, तुम्हारे हवाले करके तुमको तुम्हारी क़ौम का हाकिम बना दूंगा।” आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया।
इसके बाद वह दोनों आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से रुख़सत होकर बाज़ान के पास पहुंचे और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दी हुई खबर से बाख़बर किया। बाज़ान ने कहा कि “अगर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की यह बात दुरुस्त है तो यहां अल्लाह के नबी हैं, और अगर ऐसा नहीं है तो सोचुंगा कि मुझे उनके साथ क्या रवैया अपनाना चाहिए।” फिर इसके चंद ही रोज़ बाद शेरवैह का ख़त बाज़ान के पास पहुंचा, जिसमें उसने लिखा था:
“मैंने किसरा को क़त्ल कर दिया है। मैंने उसको अपनी क़ौम के इंतेक़ाम में क़त्ल किया है। उसने हमारी क़ौम के शरीफ़ लोगों को क़त्ल करना, उनकी औरतों को कनीज़ बनाना और उनके मालों को ग़सब करना अपना तरीक़ा बना लिया था। जब मेरा यह ख़त तुम्हारे पास पहुंचे तो अपने पास मौजूद तमाम लोगों से मेरी इताअत व फरमांबरदारी का अहद ले लो।”
बाज़ान ने इस ख़त को पढ़ते ही एक तरफ़ फेंक कर अपने इस्लाम में दाख़िल होने का ऐलान कर दिया और इसके साथ ही यमन में रहने वाले सारे ईरानियों ने इस्लाम क़बूल कर लिया।
यह कहानी तो थी हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की किसरा शाहे ईरान के साथ मुलाक़ात की। रही क़ैसरे रूम से उनकी मुलाक़ात की कहानी तो वह यह है। क़ैसरे रूम के साथ हज़रत अब्दुल्ला रज़ियल्लाहु अन्हु की मुलाक़ात दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर बिन ख़त्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु की ख़िलाफ़त के ज़माने में हुई थी। उनकी मुलाक़ात का यह क़िस्सा भी बेहद दिलचस्प और निहायत हैरतअंगेज़ है।
अमीरुल मोमिनीन हज़रत उमर फारूक़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने सन् तेरह हिजरी में रूमियों से जंग करने के लिए एक फ़ौज रवाना की थी जिसमें हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु भी शरीक थे। मुसलमान मुजाहिदीन के ईमान की सच्चाई, अक़ीदे की पुख़्तगी और अल्लाह के रास्ते में उनकी जांबाज़ी की खबरें क़ैसरे रूम तक पहले से पहुंची हुई थी। उसने अपने फौजी अफ़सरों को इस बात की हिदायत कर दी थी कि वह अगर किसी मुसलमान सिपाही को गिरफ़्तार करने में कामयाब हो जाएं तो उसे क़त्ल ना करें बल्कि ज़िंदा उसके सामने पेश करें। खुदा की मर्ज़ी, इत्तेफ़ाक़ से हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु रूमी फ़ौजियों के हाथों गिरफ़्तार हो गए, रूमी उन्हें बादशाह के पास लाए और यह कहते हुए उसके सामने पेश किया कि यह शख़्स मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के उन साथियों में से है जिन्होंने दावत के बिल्कुल शुरुआती ज़माने में उनकी पुकार पर लब्बैक कहा था। हम इसको गिरफ़्तार करने में कामयाब हो गए और हुक्म के मुताबिक़ आपके सामने पेश कर रहे हैं।”
क़ैसर उन्हें देर तक ग़ौर से देखता रहा। फिर उनसे कहने लगा:
“मैं तुम्हारे सामने एक बात पेश कर रहा हूं।”
“वह क्या बात है?” हज़रत अब्दुल्लाह ने पूछा।
“तुम नसरानियत क़बूल कर लो। अगर तुमने मेरी बात मान ली तो मैं तुम्हें रिहा कर दूंगा और तुम्हारे साथ इज़्ज़त का बेहतरीन सुलूक करूंगा।”
हज़रत अब्दुल्लाह ने उसकी इस पेशकश को नफ़रत व हिक़ारत के साथ ठुकरा दिया और बेहद बरदाश्त का मुज़ाहिरा करते हुए जवाब दिया:
“यह नामुमकिन है। मौत मुझे तुम्हारी इस पेशकश से हज़ारों गुना ज़्यादा महबूब है।”
मैं देख रहा हूं कि तुम एक निहायत अक़लमंद आदमी हो। अगर तुम मेरी यह पेशकश क़बूल कर लो तो मैं तुम्हें अपने इक़तेदार में शरीक कर लूंगा।” क़ैसर उनको शीशे में उतारने की कोशिश कर रहा था।
बादशाह की इस सतही पेशकश को सुनकर बोझल ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ क़ैदी बेसाख्ता मुस्कुरा पड़ा, और उसने निहायत बेनियाज़ी और लापरवाही का मुज़ाहिरा करते हुए जवाब दिया:
“ख़ुदा की क़सम! अगर तुम अरब व अजम की सारी सल्तनत भी मुझे दे दो और उसके बदले सिर्फ़ यह चाहो कि मैं एक लम्हे के लिए मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दीन से फिर जाऊं तो यह भी मेरे लिए बिल्कुल ना क़ाबिल ए क़बूल है।”
“तब मैं तुम को क़त्ल कर दूंगा।” क़ैसर ने धमकी देते हुए कहा।
“तुम्हारी मर्ज़ी, जो चाहो करो।” हज़रत अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु ने उसकी धमकी से डरे बग़ैर जवाब दिया।
फिर क़ैसर ने उन्हें टकटकी पर बांधने का हुक्म दिया। उसके इस हुक्म पर तुरंत अमल किया गया और उन्हें टकटकी पर बांध दिया गया। इसके बाद उसने जल्लाद से रूमी ज़बान में कहा कि “इसके दोनों हाथों के आसपास तीर चलाओ, (वह उस वक़्त भी उन्हें नसरानियत क़बूल करने की दावत दे रहा था) मगर उन्होंने इंकार कर दिया। फिर उसने जल्लाद को उनके पांव के इर्द-गिर्द तीर मारने का हुक्म दिया। (इस दौरान भी वह उन्हें अपना दीन छोड़ने की दावत देता रहा लेकिन उन्होंने फिर भी इंकार किया।) तब क़ैसर ने जल्लाद को रुक जाने का इशारा किया और कहा कि इसे फांसी के फंदे से नीचे उतार दो। फिर उसने एक बड़ी सी देग मंगवाई, उसमें तेल डलवाया और उसे आग पर रखवा दिया। जब तेल खौलने लगा तो उसने मुसलमान क़ैदियों में से दो आदमियों को बुलवाया और उनमें से एक को खौलते हुए तेल में डलवा दिया। उसमें पड़ते ही उसके बदन का गोश्त अलग हो गया और हड्डियां नज़र आने लगीं। क़ैसर ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा की तरफ़ रुख़ करते हुए फिर उनको नसरानियत क़बूल करने की दावत दी। मगर उन्होंने पहले से भी ज़्यादा सख़्ती के साथ उसकी दावत को रद्द कर दिया।
जब वह उनसे बिल्कुल मायूस हो गया तो उन्हें भी उसी देग में डालने का हुक्म दिया जिसमें उनके दोनों साथियों को डाला गया था। जब उन्हें आहिस्ता आहिस्ता देग की तरफ़ ले जाया जा रहा था, उनकी आंखें आंसुओं से भर गईं। सिपाहियों ने क़ैसर से कहा कि यह रो रहा है। क़ैसर ने समझा कि अब उनकी हिम्मत जवाब दे गई है। उसने सिपाहियों से कहा कि उसे मेरे पास लाओ। जब हज़रत अब्दुल्लाह उसके पास पहुंचे तो उसने फिर इस ख़्वाहिश को दोहराया कि वह नसरानियत क़बूल कर लें मगर जब उन्होंने इंकार कर दिया तो उसने पूछा कि “फिर तुम रो क्यों रहे थे?”
“मेरे दिल में यह ख़्याल आया कि अब्दुल्लाह! इस वक़्त तुम इस देग में डाल दिए जाओगे और तुम्हारी जान निकल जाएगी, हालांकि मेरी ख़्वाहिश थी कि काश मेरे बदन में इतनी ही जानें होतीं जितने बाल हैं और वह तमाम जानें एक-एक करके ख़ुदा के दीन के लिए इस देग में डाली जातीं। इसी ख़्याल पर मुझे रोना आ गया।” हज़रत अब्दुल्लाह ने जवाब दिया।
“अच्छा क्या तुम मेरे सर को बोसा दे (चूमना) सकते हो?” हिरक़्ल ने पूछा। “अगर तुम ऐसा करो तो मैं तुम को रिहा कर दूंगा।”
“और मेरे दूसरे तमाम मुसलमान साथियों को भी?” हज़रत अब्दुल्लाह ने सवाल किया।
“हां दूसरे तमाम मुसलमान क़ैदियों को भी तुम्हारे साथ रिहा कर दिया जाएगा।” क़ैसर ने जवाब दिया।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा कहते हैं कि मैंने दिल में सोचा कि “यह अल्लाह का एक दुश्मन है, अगर मैं इसके सर को बोसा दे दूं तो यह उसके बदले में मुझे और तमाम मुसलामान क़ैदियों को रिहा कर देगा। ऐसा कर लेने में मेरा क्या नुकसान है?”
फिर उन्होंने क़रीब जाकर उसके सर का बोसा ले लिया। और हिरक़्ल ने अपने आदमियों से कहा कि तमाम मुसलमान क़ैदी जमा करके अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा के हवाले कर दिए जाएं और उसके हुक्म पर अमल किया गया।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा ख़लीफ़ा की ख़िदमत में पहुंचे तो उन्होंने अपनी यह कहानी उनको सुनाई, जिसको सुनकर वह बहुत खुश हुए और क़ैदियों को देखा तो फ़रमाया कि “हर मुसलमान पर यह हक़ है कि अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा के सर को बोसा दे। और यह हक़ सबसे पहले मैं अदा कर रहा हूं और फिर उन्होंने हज़रत अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा के सर का बोसा लिया।

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