(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।
हिन्दी व्याख्याः- सूर : नस्र, यह सम्भवतः अन्तिम पूर्ण सूर: है। इस के बाद कुछ आयतें ही अवतरित हुईं। कोई पूरी सूर: नहीं उतरी।
इस में इस्लाम धर्म के बारे में भविष्यवाणी है कि अब वह समय समाप्त हो गया है जब इस धर्म के अनुयाई ढूंढे नहीं मिलते थे। अब वह दौर आने वाला है कि दूरवर्ती क्षेत्रों से लोग समूहों में आएंगे और इस्लाम धर्म स्वीकार/अंगीकार करेंगे।
ऐसे में, ऐ मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), तुम गर्व से अकड़ने न लगना और इस को मात्र अपना कारनामा न समझना। वरन् अपने रब को याद रखना जिसने यह सब सम्भव बनाया। उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते रहना तथा धन्यवाद स्वरूप नतमस्तक रहना।
यहां एक और सिद्धांत का वर्णन किया गया है कि एक मुस्लिम को प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए क्या करना चाहिए। कोई गीत संगीत, नृत्य आयोजन, हुल्लड़ बाज़ी, मस्ती या उद्दंडता नहीं दिखानी है। वरन् उस रब को वंदना करना है जो वास्तव में इन सब का कारक है।
इस्लामी मान्यतानुसार प्रसन्न होना यही है कि जिस के प्रायोजन से वह प्रसन्नता का अवसर मिल रहा है उसे स्वीकार किया जाए तथा उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाए। ईद का त्योहार इसका उदाहरण है। रमज़ान के एक माह के व्रत के सफल आयोजन के बाद ईद पुरस्कार का एवं सन्तुष्ट भक्त द्वारा अल्लाह को धन्यवाद ज्ञापित करने का अवसर है। यह दो रकात अधिक नमाज़ पढ़ने से प्रारंभ होती है। लोग रोज़ा पूरा रखने पर एक दूसरे से गले मिलकर मुबारकबाद देते हैं। ग़रीब को कपड़ा एवं खाना वितरित करते हैं तथा गिले शिकवे दूर करते हुए एक दूसरे के घर जाकर मुंह मीठा करते हैं।
यह है त्योहार (ख़ुशी) मनाने की इस्लामी धारणा। कोई भव्य आयोजन (शोभा यात्रा) एवं दिखावा नाममात्र को भी नहीं होता। पुण्य के कार्य करना है और वह भी अल्लाह से डरते हुए एवं उससे दुआ करते हुए कि उसके जनहित के कार्यों को वह स्वीकार कर उसे वरदान दे।
इससे पहले सूर: कौसर में भी अल्लाह तआ़ला ने इसी प्रकार एक दूसरे उपकार का वर्णन कर धन्यवाद देने के लिए कुछ दूसरे दिशा निर्देश दिए थे।
इस सूर: में मुख्य रूप से ह़म्द (ईश प्रशंसा) के साथ तस्बीह (उसके सद्गुणों का जाप) और फिर इस्तिग़्फ़ार (क्षमा याचना) चाहा गया है। इस से तात्पर्य यह है कि तुम सदैव अल्लाह की प्रशंसा करते रहो तथा उसके किसी कार्य अथवा निर्णय को ग़लत मत कहो। वह कोई ग़लत काम नहीं करता तथा किसी के साथ अन्याय नहीं करता। तुम उसके सभी फ़ैसलों को सहर्ष स्वीकार करो। फिर तुम्हारी ओर से कर्त्तव्यपरायणता में जो कमी हो गई हो, उसपर क्षमायाचना करते रहो। तुम जो कुछ भी करोगे, उसकी शान के अनुरूप कभी नहीं कर सकोगे। इसलिए अपनी कमी की स्वीकारोक्ति करते हुए उससे क्षमादान की अपेक्षा करते रहो।
रिज़वान अलीग, email – [email protected]