(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।
हिन्दी व्याख्याः- सूर: तकासुर, मनुष्य अधिकाधिक धन संचय करने के लिए इतना अंधा हो जाता है कि सही ग़लत का उसे आभास भी नहीं होता। दूसरे को इस के लोभ के चलते कितना कष्ट एवं कितनी हानि पहुंच रही, इसकी सर्वथा उपेक्षा होती है। चोरी, डकैती, ब्याज, रिश्वत, कमीशन एवं मुनाफाखोरी अपने चरम पर पहुंच कर कितना अत्याचार करती, इसका आभास केवल उसी को होता है जो इस का भुक्तभोगी होता है।
इस सूर: में इसी कष्टदायक स्थिति पर प्रहार किया गया है। यह अमानवीय है कि एक व्यक्ति केवल अपनी तिजोरी भरने में लगा रहे, तथा इस बात से सर्वथा अनभिज्ञ रहे कि उसके स्वार्थ की चोट कहां कहां पड़ रही है तथा कौन कौन उसकी भारी कीमत चुका रहा है।
धनदोहन की यह अंधी दौड़ इस्लाम की तथा क़ुरआन की दृष्टि में कहीं से भी उचित नहीं है। बहुत सारे कारणों से इस का अंत सांसारिक संसाधनों के बूते करना संभव नहीं है। अतः मृत्युपरांत का डर बताया जा रहा है, जब न्याय मिलेगा और भरपूर बदला दिया जाएगा।
अल्लाह तआ़ला ने इसीलिए बल देकर इस सोच को ही समाप्त करने का आह्वान किया है। कदापि नहीं की बारम्बारता इसी सोच को इंगित करती है। धन-संपदा का यह लोभ मानवता के विरुद्ध तो है ही, यह ईश्वर के प्रति भी अपराध है, क्योंकि इस का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि ईश्वर का भय मन (मानव हृदय) से विलोपित हो जाता है। अल्लाह तआ़ला उल्लेख करते हैं कि इन संसाधनों, उपहारों, ऐश्वर्य तथा विलासिता के जीवन ने तुम्हें ईश्वर का कृतघ्न क्यों बना दिया। इस का परिणाम तो इस के विपरीत यह होना चाहिए था कि तुम उसकी भक्ति में अपना सर्वस्व समर्पित कर दो। पर तुम ने ऐसा नहीं किया। अब जब तुम पलट कर मेरे पास आओगे, तो मैं पाई पाई का हिसाब लूंगा और प्रत्येक ग़लत आचरण के लिए उसके अनुरूप दण्ड का प्रावधान होगा।
रिज़वान अलीग, email – [email protected]