(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।
हिन्दी व्याख्या:- सूर: बलद, एक बार फिर इस सूर: में क़सम (सौगंध) खाकर एक बात कही गई है। क़ुरआन मजीद में क़सम किसी वस्तु के बड़े होने अथवा सर्वज्ञानी होने के कारण नहीं खाई जाती अपितु उसकी गवाही (साक्षी के रूप में) या उसकी विशेषताओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया जाता है जिसमें तथा सिद्ध की जाने वाली वस्तु में एक या अधिक समान विशेषण हैं। लेकिन उससे पहले “नहीं” से प्रारंभ करके यह बताया गया है कि जो चर्चाएं चल रही हैं, वे सत्य “नहीं” हैं। अर्थात् यह सोच सही नहीं है कि इस संसार में जो चाहे करो, उस की कोई पूछताछ नहीं होगी।
यहां मक्का नगर, जिसमें हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम स्वयं वास किये हुए हैं किन्तु परिस्थिति यह है कि अपनी धरती ही उन पर तंग कर दी गई है, तथा जनने वाले (माता-पिता) एवं जने जाने वाले (बेटा-बेटी) की सौगंध खाई गई है। फिर वह मुख्य मुद्दा है जिसके लिए क़सम खाई गई: मनुष्य का जन्म ही कठिनाइयों में हुआ है।
सबसे पहले मक्का नगर को लें। वह स्थान जहां सबको शांति एवं आश्रय दिया जाता है, उस की स्थापना किन परिस्थितियों में हुई। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सुनसान चटियल रेगिस्तान में अपनी पत्नी एवं दूधमुंहे बच्चे को छोड़ दिया। फिर यह नगर आबाद हुआ तथा आज काबा शरीफ़ के कारण एक बड़े क्षेत्र का केन्द्र-बिन्दु बना हुआ है।
जिस नगर के वासी होने के कारण अन्यत्र भी आदर एवं शांति का व्यवहार मिलता है, उसी नगर में हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सत्य संदेश देते हैं तो उन की जान के लाले पड़ गए हैं। सभाएं आयोजित की जा रही हैं तथा योजनाएं बनाई जा रही हैं कि कैसे आप को (नऊ़ज़ु बिल्लाह) क़त्ल कर दिया जाए।
दूसरी क़सम यह सोचने को आमंत्रित करती है कि समस्त मानवजाति के पिता, हज़रत आदम अलैहिस्सलाम तथा प्रत्येक माता-पिता किस-किस कष्ट को झेल कर प्रजनन प्रक्रिया में किस-किस दौर से गुजरते हैं, जबकि हर पल बच्चे की जान दांव पर लगी रहती है। यह दो कल्पना-चित्र (imagery) यही आभास देते हैं कि मानवजाति को इस संसार में विभिन्न कठिन अवस्थाओं में रहना पड़ता है, जो अधिकतर उस के लिए रुचिकर नहीं होतीं।
ईश्वर ने मनुष्य को संसाधन दिये हैं तो उसे निरंकुश नहीं छोड़ दिया है। वह न केवल उन के उपयोग पर नजर रखे हुए है, वरन् उनके संबंध में प्रश्न भी करेगा। वह पूर्ण रूप से ईश्वर के नियंत्रण में है तथा उससे हटकर कहीं जा भी नहीं सकता है।
वह धन पाकर मदमस्त हो गया है तथा निरंकुशता का परिचय देते हुए कहता है कि मैं ने तो ऊल-जलूल कार्यों में धन को ख़ूब लुटाया है। ईश्वर कहता है कि वह सब देख रहा है तथा इस का हिसाब लेगा।
फिर ईश्वर ने अपनी कुछ नेमतों (उपकारों) का नाम लिया और पूछा कि इनका लाभ क्या है तथा सोचो कि इनको देने के पीछे ईश्वर का आशय क्या हो सकता है। पूछा यह दो आंखें क्यों दीं हैं? क्या इसलिए नहीं कि आंख खोल कर चीज़ों को समझें? क्या जीभ एवं ओंठ केवल बोलने के लिए हैं? क्या उस बोली का समझ से कोई संबंध नहीं है? और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि नबियों को भेज कर जो अच्छे एवं बुरे रास्ते का स्पष्ट ज्ञान दिया, उस का क्या लाभ हुआ?
धन का सही उपयोग नहीं हुआ। जिस धन-दौलत पर अपने सगे-संबंधियों, समाज के परिष्कृत लोगों एवं दीन-दुखियों का भी अधिकार है, उसे तुमने अपनी विलासिता पूर्ण जीवन शैली की भेंट चढ़ा दिया। आंखों, जीभ एवं ओंठों के आनन्द लेने में ही उन्हें व्यय कर डाला। जबकि तुम्हें कुछ कठिन कार्य करना था। ऐसे कठिन कार्य करना दुर्गम चढ़ाई चढ़ने जैसा है। चढ़ना आसान नहीं, किन्तु उसके लाभ एवं उसके बाद मिली आत्मसंतुष्टि अकल्पनीय है। वह चढ़ाई वास्तव में लोगों को स्वतंत्रता दिलाना है – दास्ता से, निरपराधों को जेलों से, क़र्ज़ के बोझ से तथा सभी प्रकार के परतंत्र से। दूसरी कठिन चढ़ाई भूखों को खाना खिलाना है जहां धन का सदुपयोग हो सकता है – अकाल या दैवीय अथवा प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त लोगों को – विशेषकर अनाथों को (जिन के सिर से माता या पिता की छत्रछाया हट गई हो) – वह अनाथ यदि आप का कोई सगा हो, तो यह जिम्मेवारी अधिक बढ़ जाती है। या कोई ऐसा बेघर हो जिस के पास कमाने का साधन, स्रोत, अवसर अथवा ऊर्जा न हो। यहां खर्च करना दुष्कर किन्तु वास्तविक आनंदमय होगा।
मनुष्य संसार में जितने भी पुण्य कर ले, उस का विश्वास यदि ईश्वर पर नहीं है तो मरने के बाद उसका कोई लाभ उसे नहीं मिलेगा। यह जीवन उस के लिए सरल हो जाएगा। उसे यहां सम्मान, यश, प्रसिद्धि एवं संतुष्टि सब मिल सकता है किन्तु मृत्यूपरांत जीवन, जो कि एक सच्चाई है, वहां उस का कोई अंश नहीं होगा। ऐसे व्यक्ति को संसार में दु:ख का सामना करना पड़े, तो ईश्वर को उसका आरोप न देकर (दोषमुक्त करते हुए) धैर्य करना है तथा परोपकार से हाथ नहीं खींचना है, अपितु सबको कृपा, दया, उपकार आदि का पाठ पढ़ाते रहना है।
ऐसे लोगों को क़ुरआन में दाहिने हाथ वाले (सुयोग्य / क़ियामत के दिन जिनके परिणाम उनके दाहिने हाथ में दिये जाएंगे तथा वे सफल घोषित किए जाएंगे) कहा गया है। इस के विपरीत जिन लोगों ने ईश्वर की प्रभुसत्ता को चुनौती दी, उसे, उस के दूतों को तथा उनपर उतारी गई पुस्तकों पर अविश्वास प्रकट किया, वे बाएं हाथ वाले (अभागे अथवा वे जिनके कर्मों का परिणाम उनके बाएं हाथ में तथा पीठ के पीछे से दिया जाएगा तथा उन्हें असफल घोषित किया जाएगा) होंगे। वास्तव में असहायों पर खर्च करने में वही रूचि दिखाता है, जिसे उसका बदला या लाभ दिखता है। भौतिकतावादी इस युग में हर किसी को तुरंत मिलने वाला लाभ ही रुचिकर लगता है। यदा-कदा यह लाभ मूर्त रूप लेता दिखाई नहीं पड़ता तो व्यक्ति निराश हो जाता है तथा उसकी रुचि समाप्त हो जाती है। क़ुरआन शरीफ़ के माध्यम से अल्लाह तआ़ला ने पुण्य के हर कार्य के निश्चित पुरस्कार की घोषणा की एवं गारंटी ली है। इस आश्वासन पर विश्वास करने वाला ही यहां के यश-अपयश की चिंता किए बिना निर्बाध रूप से पुण्य के कार्य अनवरत जारी रख सकता है। इस विश्वास एवं आस्था को आत्मसात न करने वाले के साथ ईश्वर अन्याय नहीं करेगा। उसे इस सांसारिक जीवन में समुचित बदला दिया जाएगा। परन्तु आस्था के अभाव में अंततोगत्वा उसे मरणोपरांत भयंकर अग्नि का ईंधन बनना पड़ेगा।
रिज़वान अलीग, email – [email protected]