(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।
हिन्दी व्याख्या:- मक्का के निवास काल में भी अति प्रारम्भिक चरण में अवतरित होने वाली यह सूर: इस्लाम के मूल सिद्धांतों एवं पूर्व के ग्रंथों में उन (इस्लामी सिद्धांतों) के संदर्भ एवं चर्चा के संबंध में है।
सर्वप्रथम ईश्वर के बारे में दृष्टिकोण स्पष्ट रखने का आदेश दिया गया। मक्का के काफ़िर तथा मदीना के यहूदी एवं ईसाई – कोई ऐसा नहीं था जिसे अल्लाह तआ़ला के अस्तित्व में तनिक भी संदेह अथवा शंका हो। क़ुरआन मजीद में भी अन्यत्र इस का वर्णन है कि वे सृष्टिकर्ता, वर्षा कर्ता, सुरक्षा कर्ता एवं समस्त कार्यों को निष्पादित करने वाला अल्लाह को ही मानते थे, (क़ुरआन 10:31; 27:60-64) किन्तु मूर्तियों, वृक्षों, पत्थरों एवं पूर्वजों को इस लिए पूजते थे कि वे उन्हें ईश्वर से निकट कर देंगे। (क़ुरआन 39:3) यहां उसी प्रसंग में उनसे कहा जा रहा है कि ईश्वर के संबंध में अपनी मूल धारणा को शुद्ध करो। अर्थात् वह तुम्हारी प्रार्थनाएं स्वयं सुनता है, वह तुमसे तुम्हारी आत्मा/मन से भी निकटतम है। अतः किसी और को बीच में न लाओ। वह महानतम अस्तित्व है। अतः उसकी किसी विशेषता में किसी को भी उसके समान न ठहराओ। उसके अंदर कोई कमी निकालने का प्रयास न करो। उसके नाम को सम्मान के साथ लो। उपहास में, अपवित्र स्थान अथवा कार्य के समय एवं गाली के साथ उसका नाम न लो। सदैव अच्छे शब्दों में, उसकी बड़ाई का ध्यान रखते हुए तथा प्रशंसनीय ढंग से ही उसके नामों का उच्चारण करो।
फिर बताया गया कि ऐसा करना क्यों आवश्यक है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपने अस्तित्व के लिए उसकी ऋणी है। उसी ईश्वर ने सृष्टि की उत्पत्ति की तो वह वस्तु है, अन्यथा वह न होती। और सृष्टि के उपरांत यूं ही नहीं छोड़ दिया, अपितु एक-एक अंग एवं अंश को पूर्णतया उचित रूप प्रदान किया। जो बनाया उच्चतम कोटि का बनाया। वह उससे उत्तम हो ही नहीं सकता था। कोई उसके आकार एवं स्वरूप को चुनौती नहीं दे सकता।
अगले चरण में उस ईश्वर ने प्रत्येक वस्तु का कार्य निर्धारण किया। किसे इस संसार में कौन से कार्य करने हैं इस का ज्ञान उस के अंदर निहित किया। किस वस्तु में कौनसा गुण हो कि वह अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके, यह तय किया। मनुष्य के अंदर भी दो प्रकार का कार्य बल दिया। एक वह जिस में उस की इच्छा को कोई स्वतंत्रता नहीं है। अर्थात् उस के हाथ, पैर, नाक, कान, मुंह, आंख तथा शरीर का बाह्य एवं आंतरिक समस्त यंत्र उसके जाने अनजाने में वही कार्य कर रहे हैं जिसके लिए उन्हें बनाया गया है। ब्रह्मांड की अन्य इकाइयों – सूर्य, चंद्रमा, तारे, पेड़, पौधे, नदी, पर्वत, नभ, जल, अग्नि, वायु, धरा – सब की तरह उस के अंग-अंग एवं रोम-रोम वही कार्य एवं कर्तव्य का पालन कर रहे हैं जिनके लिए वे निर्मित हैं। यही अर्थ है आयत ३ का।
वह वही है जिसने चारा निकाला। हरा-भरा चारा जिससे चौपाये पेट भरते हैं। धरती के गर्भ से निकलने वाली सभी हरियाली एवं शाक सब्जी जिससे किसी का पेट भरे या स्वयं धरती का सुंदर स्वरूप निखर कर सामने आए, वह सब उसी ईश्वर की कार्ययोजना है। फिर यदि वह मनुष्य अथवा पशुओं के उपयोग में नहीं आती तो कुदरत ही उसे कूड़ा-कर्कट बना देती है। यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है। यह इस ओर इंगित करती है कि प्रत्येक वस्तु का एक अन्य रूप होता है। इस जीवन को भी स्वाभाविक रूप से यूं ही सम्पन्न होना है। इस जीवन को भी एक दिन नष्ट होना है। यह सदैव ऐसा ही नहीं रहेगा। इस जीवन का प्रतिरूप मृत्यूपरांत दृष्टिगत होगा।
इसके बाद हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की एक आदत पर उन्हें ईश्वर द्वारा प्यार से समझाया गया है। वास्तव में होता यह था कि जब वह़्य का अवतरण आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर होता था तो इस डर से कि कहीं आप उसे भूल न जाएं, आप जल्दी जल्दी उसे दोहराने लगते थे। क़ुरआन मजीद में कुल तीन स्थानों पर इस प्रकार की आप की शंका के निवारण हेतु अल्लाह तआ़ला ने ऐसी सांत्वना दी। अल्लाह तआ़ला ने फ़रमाया कि आप इस की चिंता न करें। क़ुरआन को आपको पढ़ाना एवं समझाना हमारा काम है। आप को हम याद भी करा देंगे तथा उसका अर्थ भी बतला देंगे।
इसी बहाने यह भी बता दिया कि क़ुरआन शरीफ़ को सुरक्षित तरीके से अवतरित किया गया है और इस की सुरक्षा की व्यवस्था भी उसी अल्लाह के हाथ में है जो प्रत्येक वस्तु का सृष्टिकर्ता है तथा उसकी नस-नस से भलीभांति परिचित है।
ईश्वर वह महान हस्ती है जिसकी कोई थाह नहीं पा सकता किन्तु वह प्रत्येक व्यक्ति एवं वस्तु के संबंध में सब कुछ जानता है। कोई चीज चाहे खुली हुई हो अथवा छिपी हुई, ईश्वर की दृष्टि से ओझल नहीं हो सकती। वह काली रात्रि में काले पर्वत पर चलने वाली काली च्यूंटी को भी देख सकता है, आकाश व पाताल की प्रत्येक वस्तु के संबंध में जानकारी रखता है तथा हृदय में पलने वाले विचार को पढ़ सकता है क्योंकि वह हमारी आत्मा से भी अधिक हमसे निकट है।
फिर अल्लाह तआ़ला प्रथम पुरुष में आश्वासन दे रहे हैं कि हम (ईश्वर) तुम्हारे लिए आसानी तथा स्वर्ग की ओर जाना सुविधाजनक बना देंगे। अर्थात् ऐसे कार्य करना तुम्हारे लिए सरल होगा जिनके करने से स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होगा।
अब आप (नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को यह करना है कि जहां उपदेश देना उपयुक्त लगे, वहां अवश्य यह पुनीत कार्य करें। इस बात की चिंता कदापि न करें कि कोई उसे सुनता है अथवा अनसुना/अवज्ञा कर देता है। इस संदर्भ में नियम यही है कि जिस के मन में ईशभय होगा वही उपदेश से लाभ उठाता है। जबकि वह अभागा है जो नर्क की अग्नि का भागीदार होगा। वह अच्छी बातों से दूर-दूर रहता है।
नर्क की भयावहता का एक उदाहरण यह है कि वहां न मृत्यु आएगी न ही जीवन ही का स्वाद मिलेगा। बार-बार मौत आएगी तथा बार बार जिलाया जाएगा। मृत्यु दुःख एवं यातनाओं का अंत नहीं करेगी, अपितु अगले प्रकोप की तैयारी मात्र होगी।
उस दिन यह निर्णय होगा कि जिस व्यक्ति ने पवित्रता को अंगीकार किया होगा, परमात्मा का सदैव स्मरण किया होगा तथा नमाज़ अदा करता रहा होगा, उसे सफल घोषित किया जाएगा। इस से स्वत: यह अर्थ भी निकलता है कि अपवित्र, ईश्वर को भुलाने वाला तथा बेनमाज़ी असफल होगा तथा नर्क का भागीदार होगा।
परन्तु अधिकतर लोगों की मानसिकता यह होती है कि त्वरित लाभ एवं सांसारिक वैभव एवं विलासिता की ओर अधिक आकर्षित होते हैं, तथा स्वर्ग तथा आध्यात्मिक जीवन जिस का लाभ तुरंत नहीं दिखाई देता उसका परित्याग कर देते हैं। वास्तविकता यह है कि मृत्यूपरांत जीवन वृहद एवं स्थाई है।
ऐसा नहीं है कि यह तथ्य पहली बार अवतरित किया जा रहा है। नहीं, इब्राहीम एवं मूसा अलैहिमस्सलाम पर जो ग्रंथ अवतरित हुए थे, उनमें भी इन बातों का वर्णन था, परन्तु बाद में उनके अनुयायियों ने उनमें फेरबदल कर उनके मंतव्य को ही बदल डाला। इसी लिए क़ुरआन शरीफ़ में चीजों को शुद्ध रूप में पुनः प्रेषित एवं प्रस्तुत किया जा रहा है।
रिज़वान अलीग, email – [email protected]