(सर्वप्रथम) अभिशापित शैतान से बचने हेतु मैं ईश्वर की शरण लेता हूं।
हिन्दी व्याख्या:- सूर: बुरूज, एक बार फिर आकाश एवं उसके रहस्यों (भरे किलों) को साक्षी बनाकर प्रस्तुत किया गया है। वास्तव में आकाश की वास्तविकता को पूर्ण रूप से समझ पाना मनुष्य के वश में नहीं है। जिन गहराइयों तक मनुष्य की पहुंच संभव हो सकी है, उससे उसकी अज्ञानता की और पोल खुल गई है। उसे लग गया है कि वह इस ब्रह्माण्ड के संबंध में कितना कम जानता है। जितना आगे बढ़ता है, रहस्यों का एक अन्य असीमित संसार उस की प्रतीक्षा में मिलता है। ऐसा नहीं है कि वर्तमान के वैज्ञानिक युग में ही आकाश के आश्चर्यों की खोज-बीन की गई। बल्कि प्राचीन काल में भी आकाश का अपना एक महत्त्व था। दिशाज्ञान, मौसम-विज्ञान एवं सूर्य-चंद्रमा के चक्रानुक्रम आज से अधिक प्रासंगिक थे। आकाश एवं तारों के संबंध में उनका ज्ञान वृहद एवं असीम था। इसी कारण आकाश एवं उसके किलों/नक्षत्रों को साक्षी बनाकर उन (नकारने वालों) को कुछ ज्ञान दिया जा रहा है तथा उनकी पृष्ठभूमि में सदाचार एवं दुराचार की परिणति पर प्रकाश डाला गया है। आकाश में आश्चर्यों की एक दुनिया बसाने वाला अत्यंत बलशाली एवं कल्पना से परे शक्ति-सामर्थ्य का स्वामी है।
वह दिन कि जिस का वादा है, उस को साक्षी बनाकर कहा गया है कि सफलता एवं असफलता का मापक वह है जब न्याय होगा। अत्याचारी को उसके एक-एक अत्याचार की सज़ा मिल कर रहेगी, जिस के फलस्वरूप पीड़ित वर्ग को शांति एवं सांत्वना मिलेगी। उसी प्रकार ईश्वर के वास्ते अपनी जान माल को दांव पर लगाने वालों को भरपूर पुरस्कार/उपहार मिलेगा तथा कुकर्मियों की पीड़ा में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी।
देखने वाले एवं देखी जाने वाली वस्तु से तात्पर्य क़ियामत का दृश्य भी हो सकता है जब सब को विश्वास हो जाएगा कि नबियों ने जो सूचना दी थी वह सच्ची थी। तथा आगे जिस घटनाक्रम का वर्णन है, वह भी हो सकता है। दोनों को साक्षी बनाकर एक बार फिर बल देकर दोषियों को उनके दुष्परिणाम की धमकी दी जा रही है।
इन तीन चित्रों को साक्षी बनाकर जो बात कही गई है, वह ध्यान देने योग्य है। अल्लाह फ़रमाता है कि गढ़े वाले मारे गए। अर्थात् वे अब ऐसी सज़ा के पात्र बनने वाले हैं जिससे वे बच नहीं सकते तथा उससे उनके वीभत्स कृत्य का उपयुक्त बदला भी मिल जाएगा।
गढ़े वाले मारे गए/श्रापित हों, (अर्थात्) ईंधन वाली (भड़कती हुई) आग (वाले), जब वे उस (अग्नि के गढ़े के किनारों) पर बैठे हुए आस्थावानों पर जो (अत्याचार वे) कर रहे थे, उस के साक्षी/दर्शक बने हुए थे।
यह वास्तव में एक घटना का वर्णन है जब एक राजा ने अपने अहंकार में अपने विरोधी धर्मावलंबियों को आग के एक बड़े अलाव के हवाले कर दिया था और स्वयं अपने दरबारियों संग उनके जलने का तमाशा देख रहा था। इतिहास में ऐसी अन्यान्य घटनाएं हैं, अतः स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि यह किस ओर इंगित करता है। एक घटना अग्नि पूजकों के संग हुई थी, एक में कोई यहूदी पीड़ित वर्ग में था तथा एक अन्य में यह कार्यक्रम किसी ईसाई बालक तथा उसके समर्थकों के विरुद्ध संपन्न हुआ था। ईश्वर ने अपने भक्तों का समर्थन किया है तथा निर्दयी अत्याचारियों के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रकट किया है।
उनके विरुद्ध उन (गढ़े वालों) के (अमानवीय) वैर/प्रतिशोध (का कारण) इस के अतिरिक्त कुछ और नहीं था कि वे उस सर्वशक्तिमान, प्रशंसा के पात्र ईश्वर में आस्था रखते थे। यह कारण है उनके क्रूर कृत्य का। और देखें कि कितना क्रूर है इस वीभत्स घटना का कारण, कि उन पीड़ितों की आस्था अल्लाह तआ़ला में थी, जो स्वयं सर्वशक्तिमान है। वह चाहे तो इन आतताइयों को क्षण भर में उनके कुकर्मों की उचित सजा दे दे, परन्तु वह प्रशंसनीय कार्यों वाला है, वह सभी को अपने मन की करने की पूर्ण छूट दे रखता है। फिर जब उस कुकर्मी को सुधरने की इच्छा नहीं होती है तथा उसके पापों का घड़ा भर जाता है तो ईश्वर इस संसार में भी उसको अपमानित करता है तथा कठोर दण्ड देता है। फिर मरने के उपरांत भी वह न्यायोचित परिणाम से उसे दो चार करेगा तथा ताड़ना का एक अंतहीन चक्र चलता रहेगा।
यहां पहुंच कर ईमान वालों को एक प्रकार के डर का आभास होता है। ईश्वर ने अपने भक्तों को क्यों नहीं बचाया। अत्याचारियों को इतना निरंकुश क्यों होने दिया। क्यों नहीं उनके इतने बड़े निर्णय से पूर्व ही उनका हाथ रोक दिया या उन्हें अपाहिज बना दिया?? यह तथा इस प्रकार के अनेकों निराशाजनक प्रश्नों से उसका सामना होता है। उसका उत्तर यह है कि ईश्वर की प्रत्येक कार्य में कुछ अलग सी चाहत होती है। बंदों को चाहिए कि उसकी पसंद-नापसंद को समझें। कभी आस्था को परखने का अवसर होता है, तथा उसमें जो सामर्थ्यवान अपने प्राणों की आहुति दे देता है वह सफल घोषित होता है। औरों के समक्ष इस प्रकरण को प्रस्तुत करने का उद्देश्य यह होता है कि उनके विश्वास में परिपक्वता आये। दृढ़ विश्वास ही वह पूंजी है जो सफलता की कुंजी है। इस के लिए यदि जान भी जाती है, तो जीवन सार्थक हो जाता है।
इस आयत के तुरंत बाद जिस भयंकर दण्ड एवं ताड़ना का वर्णन है वह अपने आप में सांत्वना देने के लिए पर्याप्त है कि ईश्वर के वहां न्याय अवश्य होगा। आस्था को उसका उपयुक्त पुरस्कार एवं सदैव का आराम अवश्य मिलेगा तथा ज़ुल्म को उचित तिरस्कार एवं दोनों संसार में प्रताड़ना एवं अपमान अवश्य ही प्राप्त होगा।
वे समझ रहे हैं कि वे निरंकुश हैं, उनकी किसी के समक्ष कोई जवाबदेही नहीं है। आज सत्ता के नशे में चूर हो, वे समझते हैं कि यह उनकी सफलता का मापदंड है, जबकि वास्तव में अल्लाह उनकी एक एक गतिविधि पर नजर रखता है। और किसी महान राजा का देख/जान लेना ही प्रजा के अंदर थरथरी पैदा करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए।
फिर अल्लाह तआ़ला ने निर्णायक कथन कह दिया कि जिन लोगों ने आस्थावानों/मोमिनों को सताया फिर प्रायश्चित भी नहीं किया, उनको नर्क में अग्नि का दण्ड मिलना तय है।
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि क़ुरआन के अवतरण के समय आस्थावान भक्तों का वर्णन निश्चित ही आज मुसलमान कहे जाने वाले तथा क़ुरआन मजीद पर ईमान लाने वाले लोग नहीं हैं। इस का तात्पर्य यह है कि पूर्व में जो नबी या पैग़म्बर आए हैं इस्लाम धर्म उन सब को इस्लाम का ही प्रचारक मानता है। वे सब मुसलमान थे। उनकी शिक्षाओं तथा इस्लाम की शिक्षाओं में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। परन्तु बाद में नबियों को भेजते रहने का कारण यह है कि समय के साथ तथा नबियों के गुजरने के बाद उनकी शिक्षाओं को परिवर्तित कर दिया गया तथा ग्रंथों में भी फेरबदल किया गया जिसके कारण मूल शिक्षाएं लुप्त अथवा विस्मृत हो गईं। यही कारण है कि (जैसा कि ऊपर कहा गया) पीड़ित पक्ष अग्नि-पूजक, यहूदी अथवा ईसाई भी हो सकता है क्योंकि जब यह (आग के गढ़े में डाले जाने वाली) घटना घटी उस समय वह पीड़ित वर्ग ईश्वर में सच्ची आस्था रखता था एवं मूल धर्म के अनुसार ही जीवन यापन कर रहा था। अल्लाह तब भी अपने भक्तों के साथ था तथा आज भी अपने उपासकों के साथ है।
जो लोग ईश्वर में आस्था रखेंगे और केवल आस्था नहीं वरन् उसके आदेशों के अनुसार आचरण भी करेंगे, उनके लिए स्वर्ग है। ऐसा स्वर्ग जिस में घनी छांव भी होगी तथा कल-कल बहता हुआ झरना भी होगा। सफलता वास्तव में यही है। संसार में ठाट-बाट, सत्ता लोलुपता, सौन्दर्य का घमंड, शक्ति अर्जन, धन-दौलत एवं ऐश्वर्य सफलता नहीं हैं, सफलता के नाम पर धोखा हैं। क़ुरआन में अन्यत्र कहा गया है, “… जो अग्नि से बच गया तथा स्वर्ग में प्रवेशित कर दिया गया, वह सफल हो गया।” (क़ुरआन 3:81)
इसके बाद ईश्वर के संबंध में यदि कोई भ्रांति है तो उस का निवारण किया गया है। तुम्हारे रब की पकड़ बहुत कठोर है। वह दुराचारियों को उनके कुकर्मों पर तुरंत नहीं पकड़ता। वह उन्हें छूट तथा सुधरने का अवसर देता है। यदि व्यक्ति संभल जाता है, अपने कुकृत्यों के लिए ईश्वर से क्षमायाचना कर लेता तथा जो हानियां पहुंचाई हैं उनकी भरपाई कर देता है, तो ईश्वर बड़ा दयालु है, वह अपने बंदों से बड़ा प्रेम करता है, वह क्षमादान दे देता है। किन्तु यदि अत्याचार की सीमा पार कर दी जाती है, तथा सुधार की कोई आशा नहीं रहती, तो फिर ईश्वर की पकड़ उस को घेर लेती है और उससे बचना किसी के लिए संभव नहीं है।
ईश्वर ही जीवन की शुरुआत करता है। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक व्यक्ति, समस्त मानवजाति तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपने आरंभ के लिए उसी ईश्वर का ऋणी है। जब कुछ नहीं था तो उसने अस्तित्व प्रदान किया। जब सब कुछ समाप्त एवं तहस-नहस हो जाएगा, तब भी वही दूसरी शुरुआत करेगा।
उस की हैसियत यह है कि वह क्षमादाता, प्रेमकर्ता, बड़े आसन वाला, ऊंची हैसियत वाला तथा जो चाहे करने वाला है। उस के किसी भी गुण में कोई उसके समकक्ष नहीं है, न ही उसकी इचछापूर्ति में कोई व्यवधान उत्पन्न कर सकता है। वह अपने कार्यों के लिए किसी के समक्ष उत्तरदायी नहीं है।
फिर इतिहास के झरोखे से दो चित्र प्रस्तुत कर के पूछा गया कि क्या इन बड़ी-बड़ी सेनाओं वाले फ़िरऔन एवं समूद की सूचना नहीं पहुंची। बड़ा दम्भ एवं घमंड था उन्हें अपनी ताकत एवं सेना पर। फिर क्या हुआ? बिना किसी विरोधी सेना के पूरी फ़िरऔनी सेना जलमग्न हो गई। समूद को एक झटके में मिटा दिया गया। न उनकी सेनाएं काम आईं, न ही उनकी अन्य कलाएं अथवा विशेषताएं।
वास्तविकता यही होती है कि ईश्वर का विरोध एवं स्वयं की शक्ति का अहंकार व्यक्ति को सत्य को झुठलाने के लिए लगातार प्रेरित करता रहता है। जबकि ईश्वर को उसकी धरती में बिगाड़ कदापि पसंद नहीं है। वह ऐसे अपराधियों को घेरे रहता है।
यह सब बातें क़ुरआन में वर्णित की जा रही है ताकि लोग होश में आ जाएं। क़ुरआन मजीद के विरोध से न यह अवतरण रुकेगा, न ही यह आवाज बंद होगी। यह तो बहुत पवित्र क़ुरआन है, एक सुरक्षित स्थान पर संरक्षित है। वहां तक किसी की पहुंच नहीं है तथा इसे पूरा हो कर रहना है। अतः बुद्धिमानी इसी में है कि सत्य का साथ दिया जाए। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जो प्रस्तुत कर रहे हैं उसे अंगीकार किया जाए तथा धरती को पाप से मुक्त कर के सभी के लिए रहने योग्य बनाया जाए।
रिज़वान अलीग, email – [email protected]