गोरखपुर विश्वविद्यालयः प्रवृत्ति मूलक धर्म की स्थापना मुख्य ध्येय- डॉ सूर्यकांत त्रिपाठी

गोरखपुर विश्वविद्यालय

गोरखपुर। प्रवृत्ति मूलक धर्म की स्थापना पंडित दीनदयाल जी के साहित्य का मुख्य केंद्र बिंदु था। धर्म सभी जानते हैं परंतु उसके अनुपालन की प्रवृत्ति समाप्त हो गई है, इसलिए धर्म की स्थापना से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रवृत्ति मूलक स्वभाव बने, इसके लिए दीनदयाल जी ने अपने साहित्य में जगह-जगह उल्लेख किया है, उक्त बातें डॉ सूर्यकांत त्रिपाठी दीनदयाल शोध पीठ में आयोजित परिचर्चा में बतौर मुख्य अतिथि कही। दीनदयाल जी की रचनाओं में झलकती धर्म आधारित राष्ट्र चेतना के साथ एक नि:स्वार्थ राजनीति के लिए किन शर्तों की आवश्यकता है, उसे व्यक्त करते हैं। राजनीति को सेवा का विषय मानते थे, ना कि भोग का विषय।

डॉ अमित उपाध्याय ने कहा कि दीनदयाल उपाध्याय एक राजनेता के साथ-साथ कुशल संगठक तथा मूर्धन्य साहित्यकार भी थे। साहित्य की हर विधा पर उनकी समान पकड़ थी। कहानी, नाटक, कविता और यात्रा वृतांत में उनको महारत हासिल था। ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे जो उक्त बातों की पुष्टि करते हैं। उनके साहित्य-सृजन की कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण स्थान ‘चंद्रगुप्त’ का है। नाट्य विधा में लिखित यह पुस्तक हिंदी साहित्य की उत्कृष्ट धरोहर है। पंडित जी ने इस नाटक के माध्यम से चंद्रगुप्त को केन्द्र में रखकर राष्ट्रपे्रम को रेखांकित किया।

डॉ रंजन लता ने कहा कि दीनदयाल अक्सर कहा करते थे कि राष्ट्रीय समाज राज्य से बढ़कर है, इसलिए हमारे लिए राष्ट्र आराध्य होना चाहिए। सच्चा सामर्थ्य राज्य में नहीं राष्ट्र में ही रहता है, इसलिए जो राष्ट्र के प्रेमी हैं, वे राजनीति के उपर राष्ट्रभाव की आराधना करते हैं। राष्ट्र ही एकमेव सत्य है।’ इस सत्य की उपासना करना सांस्कृतिक कार्य कहलाता है। राजनीतिक कार्य भी तभी सफल हो सकते हैं, जब इस प्रकार के प्रखर राष्ट्रवाद से युक्त सांस्कृतिक कार्य की शक्ति उसके पीछे सदैव विद्यमान रहे, तभी समर्थ भारत की स्थापना की जा सकती है। कंचन साहनी ने कहा कि पंडित दीनदयाल जी के साहित्य में आर्थिक विषय का नैतिक चिंतन किया गया है नैतिकता के सिद्धांत किसी व्यक्ति द्वारा नहीं बनाए जाते बल्कि उसे खोजा जाता है, नैतिकता के सिद्धांत को ही आधार बनाकर आर्थिक क्रियाकलाप राष्ट्र को नई दिशा देते हैं।
प्रो संजीत गुप्ता ने कहा कि दीनदयाल उपाध्याय जी की रचनाएं केवल नाटक नहीं बल्कि राष्ट्रवाद की वह प्राथमिक पाठशाला है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की प्रमुख कृतियों यथा :दो योजनाएं, राष्ट्र चिंतन, भारतीय अर्थ नीति :विकास की एक दिशा, भारतीय अर्थ नीति का अवमूल्यन, सम्राट चंद्रगुप्त, जगतगुरु शंकराचार्य एकात्म मानववाद, राष्ट्रीय जीवन की दिशा आदि कृतियों में धर्म की स्थापना, राष्ट्र की रक्षा और समाज के उन्नयन के बारे में ही विचार व्यक्त किया गया है। इस अवसर पर चंदन सिंह, अंकित, अजय यादव मयंक, आदर्श शुक्ला आदि विद्यार्थियों ने पंडित दीनदयाल जी के कृतियों पर चर्चा की। परिचर्चा सत्र का संचालन ज्ञापन एवं आभार ज्ञापन डॉ मीतू सिंह ने किया।

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